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बिना सुने, बिना देखे सब वापस

२६ जून २०१०

तुती इंद्रिएतो यानी सब वापस, यह है लाउरा बोलद्रीनी की नई किताब. वह इस बात पर जोर देना चाहती हैं कि जो शरणार्थी अफ्रीका से इटली आने की कोशिश करते हैं, उन्हें बिना देखे, बिना बात सुने अफ्रीकी देश लीबिया भेजा जाता है.

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तस्वीर: AP

वे यूरोप पहुंच ही नहीं पाते हैं. कई बार उन्होने हज़ारों रुपये खर्च किए होते हैं और वह सब एक ही पल में बर्बाद हो जाता है. शर्म के मारे वे अकसर अपने गांव भी नहीं लौट पाते.

बोलद्रिनी कहती हैं, " मैंने मेरी किताब का नाम सब वापस इसलिए दिया, क्योंकि शरणार्थियों की पहचान तक जानने की कोशिश नहीं की जाती. उनकी कहानी क्या है, उनकी किस्मत लीबिया में क्या होगी. महिलाएं, बच्चे. ऐसा लगता है कि मध्य सागर के इस पार लोगों और उनकी पृष्टभूमि के बीच अंतर करना ज़रूरी नहीं माना जाता. साथ ही मैं इस बात पर भी ज़ोर देना चाह रही थी कि इटली में भी बहुत सारे लोग हैं जो हमारी सरकार के कड़े रुख से खुश हैं. जो इसे बड़ी जीत मानते हैं."

इटली के द्वीप लांपेदूज़ा पर अफ्रीका से आने वाले शरणार्थियों के लिए शिविर बनाया गया था. आजकल वह शिविर खाली नज़र आ रहा है. लाउरा बोलद्रीनी अपनी किताब में यह भी बताती हैं कि शरणार्थियों के साथ कितना गंदा व्यवहार किया जाता है और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक माना जाता है.

किताब में अफगानिस्तान के सैयद और सोमालिया के मोहम्मद की कहानी भी बताई गई है, जो अपनी छोटी सी नाव के साथ यूरोप पहुंचने और युद्ध और गरीबी को पीछे छोड़कर नई ज़िंदगी का सपना देख रहे थे.

"रात के दो बजे हमारे नाव के पास इटली के झंडे वाला एक जहाज़ आया. हमें बताया गया कि हमें सिसली ले जाया जाएगा. हमसे पूछा गया की हम कहां से हैं. मैंने कहा कि मैं सोमालिया का नागरिक हूं. तीन घंटे बाद लीबिया का एक जहाज़ आया और हमें जबरदस्ती उस पर बैठा दिया गया. लीबिया की राजधानी त्रिपोली पहुंचकर हमें जेल में कैद कर दिया गया. किसी ने हमसे बात नहीं की और हमें खूब मारा पीटा गया. जब हम बताते थे कि हम शरणार्थी हैं, तब हमें और भी ज़ोर से पीटा जाता था."

39 साल की लाउरा बोलद्रीनी को कई पुरस्कार भी मिले हैं. वह इटली की सरकार की आलोचना करने से परहेज़ नहीं करती और कहती हैं कि इटली से कई गुना ज़्यादा शरणार्थियों को शरण देने वाला देश जर्मनी हैं.

"मैं अपनी किताब उन महिलाओं को समर्पित करना चाहती हूं जो डर का शिकार हैं. भागने की कोशिश कर रही हैं और जो सुरक्षा की तालाश में खुद शोषण और हिंसा का शिकार बनी हैं. इन महिलाओं तक सूरज की किरणें नहीं पहुंचती हैं और उन्हें ही सबसे बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ती है. "

लाउरा बोलद्रीनी हिम्मतवर महिला हैं. अपनी आवाज़ उठाकर उन्होने एक वर्जना को तोड़ा है. वह कहती हैं कि कम से कम यह तो जानने की कोशिश करनी चाहिए कि शरणार्थी आर्थिक वजह से भागे हैं. वह युद्ध और हिंसा से बचना चाहते हैं या वह सिर्फ एक नई ज़िंदगी की तलाश में हैं. लेकिन अपने देश में ठीक ठाक रह रहे थे. लोगों को बिना देखे वापस भेजना आज के ज़माने में बहुत ही क्रूरता की बात है और लाउरा बोलद्रीनी अंतरराष्ट्रीय कानून और नैतिकता का भी विरोध करती हैं.

"मै इस सब को पीछे की तरफ कदम मानती हूं. हम अपने नागरिक समाज के साथ संबंध तोड़ रहे हैं. न्याय, दूसरों की इज़्जत करना, मानवीयता और एकजुटता, यह सब ऐसे मूल्य हैं जो हम बिलकुल खो बैठे हैं."

रिपोर्ट: एजेंसियां/प्रिया एसलबोर्न

संपादन: एस गौड़