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भर्ती का निर्वस्त्र इम्तहान या सम्मान का?!

शिवप्रसाद जोशी१ मार्च २०१६

सेना के एक भर्ती केंद्र पर अंडरवियर में टेस्ट लिए जाने पर भारत में तीखी प्रतिक्रिया हुई है. शिवप्रसाद जोशी का कहना है कि नकल को रोकने के नाम पर इस तरह की प्रक्रिया मानव गरिमा के अनुकूल नहीं है.

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Indien Armee Rekrutierung von Soldaten
तस्वीर: Getty Images/AFP/I. Mukherjee

भारतीय अखबारों की सुर्खियों में एक बेहद अटपटा फोटो छाया हुआ है. इसमें सैकड़ों लोग खुले आसमान के नीचे सिर्फ चड्डी पहने अपनी जांघों पर कॉपी रखकर इम्तहान दे रहे हैं. ये फोटो बिहार के मुजफ्फरपुर की है और ये अभ्यर्थी सेना में क्लर्क की भर्ती के लिए परीक्षा देने आए थे. अभ्यर्थियों का कहना है कि जब वे परीक्षा देने केंद्र पर पहुंचे तो उन्हें कहा गया कि वे अपने कपड़े उतार दें और सिर्फ और सिर्फ चड्डी पहनकर इम्तहान दें.

अभ्यर्थियों को ये आदेश बुरा और अजीबोगरीग तो लगा लेकिन उनके पास कोई चारा नहीं था क्योंकि वे बेरोजगार हैं और एक अदद नौकरी की तलाश में सेना की ये भर्ती परीक्षा देने पहुंचे हैं. केंद्रीय रक्षा मंत्री ने थलसेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह सुहाग से इस बारे में जवाब मांगा है. पटना हाईकोर्ट ने अखबारों में छपी इन तस्वीरों का संज्ञान लिया है और इस पर दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई हो रही है.

अधिकारियों की दलील है कि परीक्षार्थी अक्सर अपने कपड़ों में नकल की सामग्री लेकर आते हैं और उन्हें रोकना आसान नहीं होता इसलिये ये फैसला किया गया. सेना के अधिकारियों की ये दलील बहुत बचकानी और अमानवीय भी नजर आती है. बचकानी इसलिए कि सेना जो रक्षा का सबसे शीर्ष संस्थान है उससे ऐसे तर्क की उम्मीद नहीं की जा सकती. सेना तो सबसे शक्तिशाली और सर्वोच्च एजेंसी है जिस पर कानून के अनुपालन का दारोमदार है. इसे कहीं से इंसान की गरिमा के अनुकूल नहीं ठहराया जा सकता, खासतौर पर दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के उन युवा नागरिकों के लिए जो पहले से ही निर्धनता और बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं.

कुछ दिनों पहले राजस्थान में शिक्षकों की भर्ती प्रतियोगिता में भी कुछ-कुछ ऐसा ही अटपटा सा दृश्य देखने को मिला जहां महिला अभ्यर्थियों के दुपट्टे उतरवा लिए गए. महिला अभ्यर्थियों ने इस पर आपत्ति तो की लेकिन परीक्षा केंद्र के अधीक्षकों ने इसे नहीं माना. इसे लेकर खींचतान भी हुई. बाद में संबंधित मंत्री ने बयान दिया कि इसकी जांच कराई जाएगी.

भारत में होने वाली प्रतियोगी परीक्षाओं और स्कूल-कॉलेज की परीक्षा में भी नकल एक पुरानी समस्या है. लेकिन उसका ऐसा कोई तात्कालिक समाधान नहीं हो सकता है. न ही इसे अधिकारियों के फितूर पर छोड़ा जा सकता है. आबादी के विस्फोट, गरीबी, बेरोजगारी और अपढ़ता से जूझ रहे इसे देश में न्यूनतम मानव गरिमा को लेकर लगता है कोई नैतिक स्पेस नहीं रह गई है, न समाज में न जेहन में. एक ओर जब आप विकास और आधुनिकता और सूचना प्राद्योगिकी में कई किले फतह कर लेने का दावा बन गए देश हों तो उस सूरत में सेना भर्ती अभियान में नकल रोकने के लिए निर्वस्त्र करने की दलील हास्यास्पद ही नहीं चिंताजनक भी बन जाती है.

इसे और विस्तृत फलक पर देखें तो भर्ती परीक्षा ही नहीं, अन्य सामाजिक भागीदारियों और दायित्वों में भी इसी तरह का वैचारिक कठमुल्लापन पसरा हुआ है. लड़कियों को पढ़ाएंगे लेकिन जीन्स नहीं पहनने देंगे, मोबाइल फ़ोन वर्जित कर देंगे, समाज कल्याण की बात करेंगे लेकिन अकलियतों, बुजुर्गों और वंचितों की अनदेखी करते रहेंगे, दलितों के लिए अंबेडकर के नाम की माला जपेंगे लेकिन दलितों की मुक्ति के औजारों को विकसित नहीं होने देंगे. इस तरह खानपान से लेकर पढ़ाई लिखाई और पहनने ओढ़ने की आधुनिकता तो बेशुमार आ गई है लेकिन ये आधुनिकता मुक्त नहीं करती. ये और घेरती है. इस तरह ये दरअसल भेस ओढ़े वो वैचारिक दारिद्रय है जो इस देश में दुर्भाग्यवश सदियों से चला आ रहा है और जिसे येनकेन प्रकारेण चलाए रखने की साजिशें होती रही हैं.

आज अगर नकल से रोकने के लिए हम इस तरह का मापदंड बनाते हैं तो फिर कमजोरी कहां है. क्यों नहीं ऐसे प्रबंध विकसित किए गए कि किसी को अपमानजनक शर्तों से न गुजरना पड़े. साफ है कि नागरिकों के प्रति संस्थागत सोच में बदलाव की जरूरत है. नागरिक समाज मनुष्यों का समाज है, भेड़ बकरियों का समाज नहीं. इस तरह की घटनाएं दरअसल उस बड़े खतरे की ही एक छाया बनकर उभरती हैं जो इस देश में एकांगी, एकआयामी, एकध्रुवीय और उग्र और सैन्यीकृत अति राष्ट्रवाद की वैचारिकी के फैलते जाने से उठ खड़ा हुआ है.