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भारत की 12 फीसदी जमीन के खिसकने का खतरा

प्रभाकर१६ मई २०१६

भारत की 4.2 लाख वर्गकिलोमीटर जमीन भूकंप के अति संवेदनशील खतरनाक क्षेत्र में है. भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण (जीएसआई) के ताजा अध्ययन के अनुसार भारत के 12 फीसदी से ज्यादा हिस्से भूकंप और भूस्खलन के खतरों की जद में है.

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Erdrutsch in Indien
तस्वीर: Reuters

इस अध्ययन के मुताबिक, भूस्खलन के प्रति संवेदनशील इलाकों में से 1.8 लाख वर्गकिलोमीटर पूर्वोत्तर हिमालय क्षेत्र के तहत है. इसमें पश्चिम बंगाल की दार्जिलिंग पहाड़ियों के अलावा पड़ोसी सिक्किम भी शामिल है. इन दोनों इलाकों में हर साल बरसात के सीजन में बड़े पैमाने पर भूस्खलन की घटनाएं होती रहती हैं. अब इस ताजा अध्ययन से इसकी वजह का भी खुलासा हो गया है. इसके अलावा डेढ़ लाख वर्गकिलोमीटर हिस्सा उत्तर पश्चिम हिमालय में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में है.

जीएसआई ने कहा है कि तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक, गोवा और महाराष्ट्र जैसे पश्चिमी घाट और कोंकण पहाड़ियों में बसे राज्यों का लगभग 90 हजार वर्गकिलोमीटर इलाका भी भूस्खलन के प्रति काफी संवेदनशील है. आंध्र प्रदेश की अराकू घाटी का 10 हजार वर्गकिलोमीटर इलाका भूस्खलन वाले क्षेत्र में स्थित है.

खान मंत्रालय ने वर्ष 2013 में जीएसआई को देश के भूस्खलन वाले इलाकों की शिनाख्त के लिए एक विस्तृत कार्यक्रम शुरू करने का निर्देश दिया था. इसके तहत जीएसआई ने नेशनल लैंडस्लाइड ससेप्टिबिलिटी मैपिंग (एनएलएसएम) नामक छह वर्षीय राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया. इसके तहत वर्ष 2014-15 के दौरान हर क्षेत्र में तमाम पहलुओं का गहराई से अध्ययन किया गया. उसी की पहली रिपोर्ट अब सामने आई है.

अब तक 14 फीसदी लक्ष्य हासिल

कोलकाता स्थित जीएसआई मुख्यालय में भूविज्ञानियों का कहना है कि हिमालयी क्षेत्र भूकंप के प्रति सबसे संवेदनशील क्षेत्र में शामिल है. वहां रिक्टर स्केल पर आठ से नौ तीव्रता वाला भूकंप आ सकता है और उससे बड़े पैमाने पर भूस्खलन का भी खतरा है. भारत में 4.2 लाख वर्गकिलोमीटर क्षेत्र के भूस्खलन के प्रति संवेदनशील होने के बावजूद जीएसआई अब तक ऐसे 14 फीसदी इलाकों यानी लगभग 60 हजार वर्गकिलोमीटर इलाके में ही विस्तृत अध्ययन कर सका है.

जीएसआई के वैज्ञानिकों का कहना है कि विभिन्न इलाकों की संवेदनशीलता के बारे में उपलब्ध पुराने नक्शे एनालाग प्रणाली से तैयार किए गए थे. वे अब काफी पुराने पड़ चुके हैं. इसी वजह से जीएसआई ने नई तकनीक के सहारे तेजी से यह काम पूरा करने का फैसला किया है. एक भूगर्भवेत्ता बताते हैं कि इस प्रोजेक्ट के लिए जीएसआई नीदरलैंड के सहयोग से चार साल तक चले अंतरराष्ट्रीय शोध के जरिए विकसित तकनीक का इस्तेमाल कर रही है.

प्राथमिकताएं

वैज्ञानिकों का कहना है कि एनएलएसएम परियोजना को पूरा करने के लिए दो प्राथमिकताएं तय की गई हैं. पहली यह कि भूस्खलन के प्रति संवेदनशील लगभग 66 फीसदी इलाकों में जहां मानव आबादी और सड़कें हैं, वहां रिमोट सेंसिंग और फील्ड इनपुट के सहारे यह काम पूरा किया जाएगा. दूसरी यह कि बाकी लगभग 34 फीसदी इलाके ऊंची पहाड़ियों पर बेहद दुर्गम हैं. वहां फील्ड वर्क करना मुश्किल है. वहां यह काम हाई रेजॉल्यूशन रिमोट सेंसर की सहायता से मिलने वाले इनपुट मैप की सहायता से पूरा किया जाएगा. जीएसआई के मुताबिक, वर्ष 2014-15 के दौरान पहली प्राथमिकता का काम उत्तराखंड में किया गया. वर्ष 2015-16 के दौरान इस परियोजना के तहत देश के विभिन्न संवेदनशील क्षेत्रों में 75 प्रशिक्षित भू-वैज्ञानिकों को काम पर लगाया गया है.

जीएसआई को 2017 तक एनएलएसएम परियोजना की पहली प्राथमिकता वाला 42 फीसद काम पूरा हो जाने की उम्मीद है. यह पूरी परियोजना वर्ष 2020 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया है. जीएसआई का अनुमान है कि कई विकसित देशों में वर्ष 2020 तक भूस्खलन से होने वाला नुकसान संबंधित देशों के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के एक से दो फीसदी तक पहुंच सकता है.