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भाषा में लिंगभेद खत्म करने की जिद

१४ जून २०१३

जर्मन भाषा में स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का इस्तेमाल बहुत किया जाता है और उम्मीद भी की जाती है कि जब लोग औपचारिक रूप से संबोधित करें तो बाकायदा महिला पुरुष के मुताबिक ही करें.

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तस्वीर: Fotolia/diego cervo

अब जर्मनी की लाइप्जिष यूनिवर्सिटी ने तय किया है कि वह इन व्याकरण नियमों पर बिलकुल ध्यान नहीं देगी. फेमिनिस्ट लुसी पुश के मुताबिक जर्मन भाषा को आधुनिक जीवन शैली के हिसाब से बदलना बहुत जरूरी है.1980 के दशक से यह एक तरह से जरूरी हो गया कि जब लोगों को संबोधित किया जा रहा हो तो हमेशा श्रीमान श्रीमति, महिला साथी और पुरुष साथी, कहा जाए. इससे पहले हमेशा पुल्लिंग का बहुवचन संबोधन में इस्तेमाल होता था.

अब लाइप्जिष यूनिवर्सिटी भाषा में लिंगभेद खत्म करने की कोशिश कर रही है. अगर कड़े शब्दों में कहें तो महिलावाद के आधार पर वह आदमियों को संबोधित करने के लिए स्त्रीलिंग का इस्तेमाल कर रही हैं. इसे जेनेरिक फेमिनज्म का नाम दिया गया है.

अब से लाइप्जिष यूनिवर्सिटी के ऑफिशियल चार्टर में पुरुष प्रोफेसर को भी प्रोफेसोरिन ही बुलाया जाएगा. इसक मतलब है अब प्राध्यापक को भी प्राध्यापिका ही कहा जाएगा.एक फुटनोट में लिखा जाएगा कि इस संबोधन में पुरुष और महिला दोनों शामिल हैं. लुइसे पुश इस तरह जर्मन भाषा को धीरे धीरे बदलने की कोशिश कर रही हैं.

यह फैसला अचानक लिया गया क्योंकि यूनिवर्सिटी दोनों लिंगों को एक ही शब्द में शामिल करने के बोरिंग आयडिया से थक गए थे. इसलिए उन्होंने प्रोफेसर और इन के बीच का स्लैश हटाने का फैसला लिया.

लुइसे पुश प्रमुख महिलावादी व्याकरण भाषाविद हैं. उन्होंने लाइप्जिष यूनिवर्सिटी के अजीब फैसले का स्वागत किया है. डॉयचे वेले से बात करते समय उन्होंने बताया कि भाषा कैसे समाज पर असर करती है. (भाषा के आतंक का शिकार हिन्दी)

Luise F. Pusch Autorin Lesung Koblenz
भाषा विद लुइसे पुशतस्वीर: imago/Thomas Frey

डॉयचे वेलेः आप भाषा में समानता पर 30 साल से शोध कर रही हैं. लाइप्जिष यूनिवर्सिटी में संबोधन के लिए स्त्रीलिंग इस्तेमाल करना क्या बदलाव लाएगा?

लुईस पुशः यह निश्चित ही एक कदम आगे है. सिर्फ यूनिवर्सिटी के लिए ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिए. इस फैसले के बारे में बहुत बोला जा रहा है और इससे लोग सोचते हैं. हर मौका जो पुरुष प्रधान भाषा के बारे में सोचने पर मजबूर करता है वह भाषा के लिए बहुत अच्छा है. क्योंकि जर्मन भाषा बहुत भेदभावपूर्ण है.

भाषा का भेदभाव रहित होना क्यों जरूरी है?

यह पहचान की राजनीति के लिए अहम है. भाषा में महिलाएं भी उतनी ही सामने दिखना चाहती हैं जितने पुरुष. क्योंकि पुरुष प्रधान भाषा महिला के किसी भी विचार का दमन करती हैं. जो भी वाक्य लोगों को पुल्लिंग में संबोधित करते हैं वो हमारे दिमाग में पुरुष संबंधी चित्र पैदा करते हैं यह महिलाओं किए नुकसानदायक है.

भाषा हमारी सामाजिक वस्तुस्थिति कैसे बयान करती है?

जर्मन में ऐसे कई वाक्य हैं जो पुरुष चित्र बनाते हैं. जैसे अगर आप कहें कि नया राष्ट्रपति कौन होगा. तो यह एक खास संकेत देता है. इसमें महिला के राष्ट्रपति होने की संभावना खत्म हो जाती है. कई सोश्यो लिंग्विस्टिक टेस्ट किए गए हैं जो दिखाते हैं कि इस तरह के सवालों का असर क्या होता है. टेस्ट ले रहे व्यक्ति से जब कहानी पूरी करने को कहा जाता है तो वो अक्सर पुरुष नामों के साथ कहानी पूरी करता है इसका मतलब है कि वह उसी का चित्र दिमाग में रखे है. हम अपने दिमाग के चित्रों के हिसाब से ही शब्दों का इस्तेमाल करते हैं. अगर किसी कहानी में दोनों को इस्तेमाल किया गया हो जो ठीक है लेकिन अगर सिर्फ स्त्रीलिंग का उपयोग किया जाए तो लोग शायद महिलाओं के बारे में ही सोचेंगे. और हमारा मुद्दा यही है कि हमारे दिमाग में महिलाओं के लिए भी जगह बने.

आपके प्रकाशन में आप ने जर्मन भाषा में और बदलाव करने का प्रस्ताव दिया है?

मैने ये काम धीरे धीरे करने की सलाह दी है. पहले महिलाओं को जेनरिक फेमिनिज्म के जरिए भाषा में लाया जाए लेकिन हमारा लक्ष्य हो कि हम स्त्रीलिंगी अंत - इन को खत्म कर दें. इंग्लिश में ऐसा नहीं होता. पुल्लिंग से निकला स्त्रीलिंग इंग्लिश में नहीं है. जर्मन में स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसक लिंग भी हैं. पुल्लिंग के पीछे इन लगा कर स्त्रीलिंग बनाया जाता है. इस फॉर्म से बाहर निकलने के बाद नपुंसकलिंग को भाषा में शामिल किया जाएगा.

हिन्दी में भी इस तरह से बोला जाना कम कर दिया गया है. आजकल संपादक संपादिका जैसा भेदभाव शाब्दिक स्तर पर कम से कम नहीं होता. हालांकि इसे जमीनी स्तर तक पहुंचने में और समय की जरूरत है क्योंकि मानसिकता बदलने के साथ ही ये बदलाव संभव हैं.

रिपोर्टः आभा मोंढे

संपादनः एन रंजन

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