1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

मौत की सजा से कुछ हासिल नहीं

शबनम सुरिता
२४ जुलाई २०१५

मुंबई बम हमलों में दोषी ठहराए गए याकूब मेमन को फांसी देने की घड़ी करीब आ रही है. डॉयचे वेले के ग्रैहम लूकस का कहना है कि लोकतांत्रिक भारत जैसे सभ्य समाजों में मौत की सजा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए.

https://p.dw.com/p/1G4J9
Brasilien Gefängnis Überfüllung Archiv 2006
तस्वीर: picture-alliance/dpa

एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है कि मौत की सजा जीवन के अधिकार का हनन करती है और यह क्रूर, अमानवीय और अपमानजनक सजा है. सवाल सिर्फ यह नहीं है कि सजा की तामील के लिए कौन सा तरीका अपनाया जा रहा है, बल्कि सजा पर अमल से पहले होने वाली मानसिक पीड़ा और तकलीफ भी. मौत की सजा तय होने के बाद अपील और माफी की पूरी कानूनी प्रक्रिया पूरी होने तक अभियुक्त को सालों तक यातना जैसी मानसिक तकलीफें झेलनी पड़ती हैं. अभियुक्त के परिवार वालों ने क्या झेला और भविष्य में झेलना होगा इसका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता. सजा देने का मकसद होता है कि उसका असर होता दिखना चाहिए. एक ओर अपराध के लिए सजा और दूसरी ओर भविष्य में ऐसे अपराध नहीं करने का डर और सुधरने का मौका. याकूब मेमन ने माफी का आवेदन देकर अपने लिए सुधरने का मौका मांगा है.

Lucas Grahame Kommentarbild App
ग्रैहम लूकस, डॉयचे वेले

आधुनिक समाज में मौत की सजा की कोई जगह नहीं होने के कई कारण हैं. एक तो इसलिए कि इसका इस्तेमाल चीन, उत्तरी कोरिया, ईरान और सऊदी अरब जैसी निरंकुश सरकारें करती हैं. 2013 में ईरान ने 369 और सऊदी अरब ने 79 लोगों को मौत के घाट उतारा है. चीन तो हर साल दुनिया में सबसे ज्यादा लोगों को फांसी देने वाला देश है. इन देशों में फांसी देने की मुख्य वजह आबादी को डराने, भ्रष्ट समर्थकों को अनुशासित करने और विरोधियों को चुप कराने की हुकूमतों की नियत लगती है.

मौत की सजा के पक्ष में एक दलील अपराध को रोकने का मकसद है. लेकिन इसकी बार बार पुष्टि हुई है कि मौत की सजा का प्रावधान अपराध को रोकने में कामयाब नहीं रहा है. इसके विपरीत अपराध होने के बाद मृत्युदंड सहमेल और अपराधी के पुनर्वास में बाधा डालता है. यह पीड़ितों के परिवारों को संतुष्ट कर सकता है लेकिन अपीलों की लंबी प्रक्रिया मामले का अंत नहीं होने देती और सभी भागीदारों की पीड़ा बढ़ा देती है. बहुत से मामलों में मौत की सजा पर अमल से शहीद पैदा होते हैं और बदले की कार्रवाई की वजह बनते हैं.

यदि अपराधी का जेल में पुनर्वास हो गया हो तो उसे मारना और भी बेतुका है. बहुत से मामलों में मौत की सजा पाए लोग जेल में सुधर जाते हैं, अपने अपराधों के लिए माफी चाहते हैं, पढ़ाई करते हैं, किताबें लिखते हैं और अपने अपराध से निबटने के लिए धर्म या किसी दूसरी चीज का सहारा लेते हैं. जो लोग पश्चाताप नहीं करते उनके मामले में भी सबूत हैं कि समाज को उनसे बचाने का खर्च जेल में कम है. सालों तक चलने वाली कानूनी लड़ाई पर ज्यादा खर्च होता है. इस रकम को हिंसा पीड़ितों के पुनर्वास पर खर्च किया जाना चाहिए. सभ्य समाजों में मौत की सजा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए.

ग्रैहम लूकस/एमजे