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मरी पड़ी गायों से उठती बदबू, मजबूत होता दलित आंदोलन

४ अक्टूबर २०१६

गुजरात में पशुओं के शव उठाने से दलितों के इनकार के बाद हालात गंभीर हो रहे हैं. अहमदाबाद के पास सड़क किनारे मरी पड़ी गायों से उठती बदबू दलितों के आंदोलन को ताकत दे रही है.

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Bhimrao Ramji Ambedkar Gedenken ARCHIVBILD 2009
तस्वीर: AP

गुजरात के ऊना में दलित युवकों की पिटाई के बाद से दलितों ने पशुओं के शव उठाने से इनकार कर दिया था. जुलाई में घटी इस घटना का वीडियो बहुत वायरल हुआ जिसमें कथित गौरक्षक दलित युवकों को पीट रहे हैं. इसके बाद भारत में कई जगहों पर दलितों ने आवाज उठाई.

मरे हुए पशुओं को उठाना और उनकी खाल उतारना भारत में दलितों का एक पारंपरिक काम समझा जाता है. लेकिन अब वे लोग इसे छोड़ने की बात कर रहे हैं. 49 वर्षीय सोमाभाई युकाभाई कहते हैं, "हमारे दलित भाइयों को बर्बरता से पीटा गया जबकि वे तो वही कर रहे थे जो हम सदियों के करते चले आ रहे हैं. मैं तो अब भूखा मर जाऊंगा लेकिन मरी हुई गायों को कभी नहीं उठाऊंगा.” एएफपी के पत्रकार ने अहमदाबाद की तरफ जाने वाली सड़क पर 10 मरी हुई गाय देखीं.

तीन बच्चों के पिता सोमाभाई कहते हैं, "अब लड़ाई हमारी गरिमा को लेकर है. हम अब चुप बैठने वाले नहीं हैं.” गायों के शवों को आलोचक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए शर्मिंदगी मानते हैं, जो कभी पूरे देश में गुजरात के विकास मॉडल का गुणगान करते नहीं थकते थे. ऊना में दलितों की पिटाई की घटना से उठे रोष के कारण मोदी की भारतीय जनता पार्टी को आगामी गुजरात विधानसभा चुनावों में नुकसान उठना पड़ सकता है.

गुजरात में दलित आंदोलन के नेता के तौर पर उभरे जिग्नेश मेवाणी कहते हैं कि ऊना की घटना ने तो सिर्फ चिंगारी का काम किया है, वरना गुस्सा तो लोगों में बहुत समय से सुलग रहा था. वह कहते हैं, "एक तरफ आर्थिक उत्पीड़न तो दूसरी तरफ जाति आधारित हिंसा के कारण बहुत ही हताशा है, खास तौर से युवा लोगों में.”

आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि 2010 से 2014 के बीच दलितों के खिलाफ होने वाले अपराधों में 44 फीसदी की वृद्धि हुई है. 2014 में एक दलित लड़के को सिर्फ इसलिए जलाकर मार दिया गया कि उसकी बकरी एक सवर्ण के खेत में घुस गई थी.

हालांकि कई जानकार यह भी मानते हैं कि आंकड़ों में आए इस उछाल की वजह पहले से अधिक जागरूकता हो सकती है. संभव है कि असल में ऐसे में मामलों में वृद्धि न आई हो, बल्कि अब ऐसे मामले प्रकाश में ज्यादा आ रहे हों. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत की आर्थिक समृद्धि में अब दलित भी अपना हिस्सा तलाश रहे हैं. बहुत से दलित काम और पढ़ाई की तलाश में शहरों का रुख कर रहे हैं.

Indien Jahrestag Rao Ambedkar Verfassung
तस्वीर: AP

जिग्नेश मेवाणी कहते हैं कि दलित मरे हुए पशुओं को उठाने का काम दोबारा तभी शुरू करेंगे जब राज्य सरकार जाति उत्पीड़न को खत्म करने के लिए कदम उठाए और इससे प्रभावित हर दलित परिवार को पांच एकड़ जमीन दे. हालांकि मरे हुए पशुओं को न उठाने से कुछ दलितों की रोजी रोटी प्रभावित हो रही है, लेकिन उनका कहना है कि वो गौरक्षकों से तंग आ चुके हैं और अपनी हड़ताल जारी रखेंगे. एक स्थानीय दलित कार्यकर्ता नातुभाई परमार कहते हैं, "जब हम खाल और हड्डियों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाते हैं तो भी हमें गौरक्षक निशाना बनाते हैं. हमसे घूस मांगी जाती है या फिर पीटा जाता है. लेकिन इस बार हम झुकेंगे नहीं. हम लंबी लड़ाई के लिए तैयार हैं.”

रिपोर्ट: एके/वीके (एएफपी)