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माओवादी हिंसा की चपेट में भारत के आदिवासी

२९ अगस्त २०१५

एक छोटे से सुदूर आदिवासी गांव की रूपा हेम्ब्रम बचपन में आसपास के जंगली सूअरों से डरा करती थी. अब वह सबसे ज्यादा माओवादी गुरिल्लों से डरती है, जो भारत के 'रेड कॉरिडोर' कहे जाने वाले इलाकों में घात लगाते फिरते हैं.

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तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Sarkar

इन्हें वामपंथी अतिवादियों के तौर पर जाना जाता है, जो कई दशकों से सरकारों को सत्ता से बेदखल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इस दशकों पुराने विवाद में अब एक नई तेजी देखने को मिल रही है, जिसका कारण देश में दक्षिणपंथी विचारधारा वाले दल के नेता नरेन्द्र मोदी का प्रधानमंत्री बनकर सत्ता में आना बताया जा रहा है.

नागरिकों के अपहरण, फांसी वाली शैली में हो रही हत्याओं में बढ़ोत्तरी के कारण अब ये भारत के सामने खड़ी सबसे बड़ी सुरक्षा चुनौती बन गई है, जिससे सुरक्षा बलों के साथ साथ आम लोगों में भी डर का माहौल है. ज्यादातर अंडरग्राउंड रहने वाले माओवादी समूह कई बार गांवों में आते हैं और गांववालों से उनकी सलामती के नाम पर पैसे ऐंठते हैं या उनके जानवर ले जाते हैं. इसके अलावा युवा लोगों को अपने साथ समूह में शामिल होने के लिए प्रलोभन भी देते हैं.

हेम्ब्रम का झारखंड स्थित छोटा सा गांव भारत के 'रेड कॉरिडोर' कहे जाने वाले केन्द्रीय और पूर्वी हिस्से में ही बसा है. वह देश के आदिवासी कहे जाने वाले स्थानीय जातीय समूहों में से एक की सदस्य हैं, जो कि बहुत ज़्यादा गरीबी में रहते हैं. ऐसी अभावग्रस्त जगहों को माओवादियों या नक्सली गुटों में नई भर्ती के लिए काफी उपजाऊ धरती माना जाता है. इस इलाके में जीने की मुश्किलों के बारे में हेम्ब्रम बताती हैं, "हमारे पास पानी की व्यवस्था नहीं है, बिजली नहीं है, कुछ भी नहीं है."

Indien Giridih Region - Rupa Hembrom
तस्वीर: Getty Images/AFP/D. Sarkar

आदिवासियों की दुर्दशा प्रधानमंत्री मोदी की विकास योजना के सामने बड़ी चुनौती की तरह खड़ी है. इन्हीं अभावों और गरीब समुदायों पर ढाए जाने वाले अत्याचारों के खिलाफ चार दशक पहले पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से विद्रोह शुरु हुआ था. इस विद्रोह में किसान और मजदूर सामंती जमींदारों के खिलाफ खड़े हुए थे. तबसे अब तक 10,000 से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं.

जहां एक ओर कश्मीर या नागालैंड जैसे इलाकों में होने वाले विद्रोह पिछले एक दशक में कुछ शांत पड़े हैं, वहीं दूसरी ओर माओवादी हमले और भी गंभीर होते गए हैं. पड़ोसी देश नेपाल में माओवादी समूहों को मिली सफलता के कारण भी भारत में इस विद्रोह को बल मिला. भारत के गृह मंत्रालय के आंकड़े दिखाते हैं कि 2010 से अब तक नक्सलियों ने 2,866 लोगों की जानें लीं हैं, जिनमें से 786 सुरक्षा बलों के सदस्य थे. बाकी मृतकों में से 921 ऐसे थे जिन्हें पुलिस का खबरिया बताकर मार डाला गया.

पिछले ही महीने चार पुलिसकर्मियों को मारकर उनकी लाश सड़क पर फेंक दी गई थी. मई में छत्तीसगढ़ में मोदी के दौरे से ठीक पहले माओवादियों ने कुछ समय के लिए गांव के 250 लोगों को ही बंधक बना लिया था. आदिवासियों में गुस्सा है कि देश में कोई भी सरकार आए उन्हें कोई लाभ नहीं होता. उनका मानना है कि सरकार आदिवासियों की खनिजों से भरपूर धरती बड़ी बड़ी रिफाइनरियों और स्टील प्लांटों को दे दे रही है.

मोदी की आर्थिक विकास नीतियों में ऐसे प्रोजेक्टों की अहम भूमिका है. इनका उद्देश्य हर समुदाय को बिलजी देना है. केवल झारखंड के सरांडा के जंगलों में ही देश के कुल लोहे के खनिज भंडार का एक चौथाई हिस्सा है. इसके आसपास ही इस समय दर्जनों कंपनियां कम से कम 50 माइनिंग प्रोजेक्ट चला रही हैं. माओवादियों ने लोगों में इस बात को लेकर असंतोष भरा कि उनकी धरती और पानी माइनिंग की प्रक्रिया में प्रदूषित हो रही है. इस तरह के संगठनों को आतंकी गुट के तौर पर वर्गीकृत किया गया है और इसकी सदस्यता लेने वालों के लिए लंबे समय तक जेल हो सकती है.

हाल ही में कुछ भारतीय समाचारपत्रों में छपे माओवादी पार्टी के महासचिव गणपति के एक पत्र में प्रधानमंत्री मोदी के विकासवादी अजेंडा के कारण अप्रत्याशित स्तर पर होने वाले विस्थापनों की चेतावनी दी गई थी. उसमें आह्वान किया गया था कि सभी को मिलकर इन योजनाओं का विरोध करना है. कई सालों से भारत सरकार इन गुटों से हमदर्दी रखने वालों निशाना बनाती आई है. बीते चालीस सालों में माओवादियों ने गरीबों के मगददगार के रूप में अपनी पहचान बनाई है. सरकारी तंत्र इस बात को समझते हुए अब विकास में ही इस समस्या के समाधान की कुंजी देख रहा है.

आरआर/एमजे (एएफपी)