1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

राजनीति और पूंजी का अनैतिक गठजोड़

कुलदीप कुमार१५ मार्च २०१६

जब किंगफिशर के कर्ज पर बहस शुरू हो रही थी तो उद्योगपति विजय माल्या भारत से चले गए. कुलदीप कुमार का कहना है कि माल्या कांड राजनीति, अफसरशाही और पूंजी के अनैतिक गठजोड़ का सबूत है.

https://p.dw.com/p/1IDNt
तस्वीर: picture-alliance/dpa/M. Kiran

जांच एजेंसियों को धता बता कर ब्रिटेन पहुंच चुके उद्योगपति विजय माल्या का मामला राज्य सभा की आचार समिति के समक्ष विचार के लिए पेश किया गया है. माल्या राज्य सभा के निर्दलीय सदस्य हैं. उनके ऊपर सरकारी बैंकों का 9000 करोड़ रुपया बकाया है लेकिन उन्हें किसी भी जांच एजेंसी ने विदेश जाने से नहीं रोका. जब सीबीआई ने उनकी विदेश यात्रा पर रोक लगाने के लिए अदालत से अनुरोध किया तो पता चला कि माल्या तो पहले ही भारत छोड़ कर जा चुके हैं.

विजय माल्या अपनी राजसी जीवन शैली के लिए विख्यात हैं और किसी भी तरह का विवाद उनके माथे पर शिकन तक पैदा नहीं करता. उनके ऊपर सरकारी बैंकों की इतनी बड़ी राशि बकाया होने की खबर ने भारतीय लोकतंत्र की इस विसंगति को एक बार फिर उजागर कर दिया है कि यहां कुछेक लाख रुपये का कर्ज न चुका पाने पर किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है, मध्यवर्ग के व्यक्ति को जेल हो जाती है और कर्ज के रुपयों से खरीदी गई कार, मोटरसाइकिल या मकान जब्त कर लिए जाते हैं लेकिन कानून के हाथ बहुत लंबे होने के बावजूद वह अरबपति विजय माल्या को छू तक नहीं पाता. एक वर्ष पहले इसी तरह का केस ललित मोदी का सामने आया था और राजनीतिक नेताओं एवं नौकरशाहों की इस तरह के तत्वों के साथ घनिष्ठता उजागर हुई थी.

Air India Flugbegleiterinnen in Training
किंगफिशर की एयरहोस्टेसतस्वीर: Getty Images/AFP/Raveendran

माल्या ने संकेत दिया है कि वह तब तक भारत नहीं लौटेंगे जब तक स्थिति “सामान्य” नहीं हो जाती. इसका स्पष्ट अर्थ है कि जब तक उनके सिर पर कर्ज और उसके मिलने के तौर-तरीकों की जांच की तलवार लटकी है, तब तक वे विदेश में ही रहेंगे और भारत और उसके कानून को ठेंगा दिखाते रहेंगे. उनका कहना है कि उन्हें भगोड़ा नहीं कहा जा सकता क्योंकि जब वे भारत से ब्रिटेन के लिए चले, तब तक उनके लिए जांच एजेंसियों की ओर से किसी प्रकार का समन या अन्य कोई निर्देश जारी नहीं हुआ था.

इस समय भारतीय बैंकिंग व्यवस्था के सामने उद्योगपतियों को दिए गए कर्जों के न लौटाए जाने की समस्या बेहद विकराल हो चुकी है. वर्ष 2013 से 2015 के बीच 29 सरकारी बैंकों ने 1140 अरब रुपये के कर्ज माफ किए हैं क्योंकि इनके लौटाए जाने की कोई संभावना नहीं थी. इसके बाद भी स्थिति जस-की-तस बनी हुई है, लेकिन रिजर्व बैंक भी इस मामले में निष्क्रिय बना बैठा है. इस बात की जांच नहीं की जा रही कि वरिष्ठ बैंक अधिकारियों ने किस आधार पर बार-बार उन्हीं उद्योग समूहों को अरबों रुपये के कर्ज कैसे दिए जिन्होंने पहले के कर्जों की अदायगी नहीं की थी.

Formel Eins Großer Preis von Kanada 2013 Sutil
फॉर्मूला वन में माल्या की टीमतस्वीर: picture-alliance/dpa

विजय माल्या के मामले में यह तथ्य सामने आया है कि उनकी लगातार नुकसान सह रही किंगफिशर एयरलाइंस की सिर्फ ब्रांड पर यानी नाम की साख को आधार बना कर उन्हें कर्ज दिया गया जबकि किंगफिशर बियर के नाम की तो कुछ साख है, एयरलाइंस की तो बिलकुल ही नहीं थी. अब यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या उन बैंक अधिकारियों की शिनाख्त करके उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी जिन्होंने माल्या और उनके जैसे अन्य उद्योगपतियों को कर्जे में हजारों करोड़ रुपये दिए?

स्पष्ट है कि इस तरह के मामलों में राजनीतिक नेता, बैंक अधिकारी, जांच एजेंसियों के अधिकारी आदि सभी शामिल हैं. यह जनता के साथ विश्वासघात है क्योंकि जनता बैंकों पर भरोसा करके अपना धन उनके पास जमा करती है. यदि बैंक उसके इस विश्वास के साथ खिलवाड़ करेंगे तो बैंकिंग व्यवस्था पर से लोगों का भरोसा उठ जाएगा और यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए घातक होगा. इसके साथ ही भारतीय राजनीति, संसद में प्रवेश की प्रक्रिया और उससे जुड़े अनेक नैतिक सवाल भी इस प्रकरण के कारण उठ खड़े हुए हैं.

माल्या जैसे अय्याश रईस को भारतीय जनता पार्टी समेत अनेक पार्टियां अपने वोट दिलवा कर राज्य सभा का सदस्य क्यों बनवाती हैं, इस सवाल की अनदेखी नहीं की जा सकती. साथ ही इस बिन्दु पर सोचने की भी जरूरत है कि ऐसे उद्योगपति किन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए संसद का सदस्य बनना चाहते हैं और बनने के लिए आकाश-पाताल क्यों एक कर देते हैं. माल्या प्रकरण राजनीतिक सत्ता, अफसरशाही और पूंजी के अनैतिक गठजोड़ का ज्वलंत उदाहरण है.