1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

'मेरी गायकी का आधार ग्वालियर है'

२३ फ़रवरी २०१४

पंडित उल्हास कशालकर भारत के शीर्षस्थ शास्त्रीय गायकों में गिने जाते हैं. उनका खयाल गायन के तीन प्रमुख घरानों, ग्वालियर, जयपुर-अतरौली और आगरा­ की शैलियों पर पूर्ण अधिकार है और वह इनके प्रामाणिक प्रतिनिधि माने जाते हैं.

https://p.dw.com/p/1BDWE
Pandit Ulhas Kashalkar
तस्वीर: Kuldeep Kumar

एक सृजनशील कलाकार के नाते दशकों तक आत्म-संघर्ष करने के बाद 59-वर्षीय पंडित उल्हास कशालकर उस मुकाम पर पहुंचे हैं जहां पहुंचना प्रत्येक कलाकार का लक्ष्य होता है. अब वह सीखा हुआ नहीं, बल्कि अपना गाना गाते हैं यानि संगीत के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं. उन्हें पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है. इस समय उल्हास देश के व्यस्ततम संगीतकारों में से एक हैं और उनका अधिक समय सार्वजनिक प्रस्तुतियां देने में ही बीतता है. उनसे हुई बातचीत के कुछ अंश:

आपकी पारिवारिक पृष्ठभूमि तो संगीत की बताई जाती है. क्या आपने बचपन में ही तय कर लिया था कि पूर्णकालिक संगीतकार ही बनना है? वैसे आपका बचपन बीता कहां?

नागपुर से हैदराबाद के बीच में आंध्र प्रदेश की सीमा की तरफ महाराष्ट्र में एक छोटा-सा कस्बा है पंढरकोढ़ा. मैं वहीं रहता था. मेरे पिताजी नागेश दत्तात्रेय कशालकर यूं तो एडवोकेट थे और वहीं की कचहरी में वकालत करते थे, लेकिन वह पुणे और सतारा वगैरह में रह चुके थे और ग्वालियर घराने के मटंगीबुआ से गाना सीख चुके थे. हमारे कस्बे में सिर्फ हमारे यहां ही तानपूरे-हारमोनियम वगैरह थे और अभी भी ऐसा ही है. मेरे बड़े भाई भी गाते थे और हमारे घर में गांधर्व महाविद्यालय का केंद्र भी था जहां परीक्षाएं होती थीं. मैं संगीत की प्रतियोगिताओं में भाग लेने पुणे, बड़ौदा, मुंबई आदि जगहों पर जाता था और मुझे पारितोषिक भी मिलते थे. मैंने बी.ए. पंढरकोढ़ा से किया और नागपुर विश्वविद्यालय से संगीत में एम.ए. किया. वहां ग्वालियर घराने के दिग्गज गायक विनायकराव पटवर्धन के शिष्य अनंत केशव कोगजे (राजाभाऊ कोगजे) थे जो खयाल के अलावा ठुमरी भी बहुत अच्छी गाते थे, रसूलन बाई के अंदाज में. एक खरगेनिवेश जी भी थे. इनसे सीखने का मौका मिला और इन्होंने भी कहा कि तुम इस क्षेत्र में रहो तो कुछ कर सकते हो. तभी मुझे मानव संसाधन मंत्रालय की एक छात्रवृत्ति मिली और मैंने तय किया कि मुझे गायक बनना है और किसी गुरु के पास जाकर सीखना है क्योंकि यह विद्या स्कूल-कॉलेज में सीखने की नहीं है.

Pandit Ulhas Kashalkar
तस्वीर: Kuldeep Kumar

तो आप किसके पास गए?

मैं पंडित गजाननराव जोशी के पास गया जिनसे मेरे बड़े भाई भी सीख चुके थे. लेकिन उनकी तबीयत खराब रहती थी और वह गाना और वायलिन बजाना, दोनों छोड़ चुके थे. उन्होंने कहा कि मैं इस हालत में तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं ले सकता. देखिये, यह है गुरु-शिष्य परंपरा का आदर्श. शिष्य गुरु की जिम्मेदारी है. तो मैं पंडित राम मराठे के पास गया. वह भी ग्वालियर और आगरा जैसे कई घरानों का गाना जानते थे. तान तो उनकी बहुत ही तैयार थी. लेकिन वह बहुत व्यस्त रहते थे. उनसे मैंने डेढ़ साल तक सीखा और बाद में भी उनके पास जाता रहा. लेकिन डेढ़ साल उनसे सीखने के बाद मैं फिर गजाननबुआ के पास गया. उन्होंने कहा कि ठीक है, मैं सिखाऊंगा, लेकिन बस पंद्रह मिनट ही. चलेगा? मैंने कहा कि बिलकुल चलेगा. तब तक मैं छोटे-मोटे प्रोग्राम भी देने लगा था, गाता था और तारीफ भी पाता था. उन्होंने यमन से शुरू किया और कहा कि अब तक जो सीखा था, उसे भूल जाओ. आप सोचिए, चार-पांच महीने तो यमन की तालीम ही चली होगी. उनसे सीखते वक्त पता चला कि यह गाना क्या है, घरानेदार गायकी क्या होती है. (ताल की) एक-एक मात्रा का हिसाब और राग का चलन, इन सबको संभालकर आगे बढ़ना और अपनी बात कहना. वरना होता यह है कि राग भी ठीक है, ताल भी ठीक है, पर मजा नहीं आ रहा क्योंकि उसमें कुछ बात नहीं कही जा रही. जैसे आपने अपने लेख में बहुत अच्छे-अच्छे शब्द इस्तेमाल किए लेकिन अगर मतलब नहीं निकला कुछ, तो सब बेकार.

उनसे आपने ग्वालियर की गायकी सीखी या कुछ और भी? आप तो आगरा और जयपुर-अतरौली भी गाते हैं.

गजाननबुआ के पिता अनंत मनोहर जोशी बालकृष्णबुआ इचलकरंजीकर के शिष्य और विष्णु दिगंबर पलुस्कर के गुरूभाई थे. लेकिन गजाननबुआ ग्वालियर की दूसरी शैली सीखने के लिए रामकृष्णबुआ वझे के पास भी गए. जयपुर की गायकी उन्होंने भूरजी खां (अल्लादिया खां के सबसे छोटे पुत्र) से और आगरा की गायकी विलायत हुसैन खां से सीखी. इसलिए मैंने भी उनसे यह सब सीखा.

आपकी अपनी गायकी का आधार क्या है? आप इन तीनों शैलियों को कैसे बरतते हैं?

मेरी गायकी का आधार तो ग्वालियर ही है. देखिये, घराने के बुनियादी उसूलों को कायम रखते हुए अपनी बात अपने ढंग से कहनी होती है. इसीलिए एक ही घराने के गायक अलग-अलग ढंग से गाते हैं. ग्वालियर के ही ओंकारनाथ ठाकुर और कृष्णराव शंकर पंडित और अन्य गायक अलग-अलग ढंग से गाते थे. मैं जब ग्वालियर के राग गाता हूं तो ग्वालियर की शैली में. लेकिन जयपुर के राग जिस तरह से मिले, उन्हें जयपुर की शैली में उसी तरह से प्रस्तुत करता हूं, जैसे सावनी, रईसा कान्हड़ा, खट या खोकर. आगरा के मेघ, बरवा, गारा कान्हड़ा वगैरह, उन्हें आगरा के ढंग से ही, फिर उन्हें ग्वालियर की नजर से नहीं देखता हूं. मेरे दोनों गुरु ही, गजाननबुआ और राम मराठे, विलायत हुसैन खां के शागिर्द थे.

ग्वालियर घराने के आपके पसंदीदा गायक?

शरच्चंद्र आरोलकर मुझे बहुत पसंद हैं, और कृष्णराव शंकर पंडित भी. डी. वी. पलुस्कर भी बहुत अच्छे थे. बहुत जल्दी उनकी मृत्यु हो गई. लेकिन सर्वश्रेष्ठ तो थे रहमत खां.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें