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मोदी के 100 दिन और वादे

Beate Hinrichs३ सितम्बर २०१४

प्रधानमंत्री के रूप में 100 दिन बिता चुके मोदी के जोरदार भाषण अब तक उन्हें मजबूत इरादों वाले नेता के रूप में तारीफ दिलाने में कामयाब रहे. लेकिन डॉयचे वेले के ग्रैहम लूकस मानते हैं कि मोदी एक भी वादा अब तक सच नहीं कर पाए.

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तस्वीर: Prakash Mathema/AFP/Getty Images

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तुलना में नरेंद्र मोदी भारत सरकार में फैसला लेने की बेहतर क्षमता देखना चाहते हैं. देश ने पिछले कुछ सालों में अटकी हुई अर्थव्यवस्था और उच्च स्तर पर भारी भ्रष्टाचार देखा है. प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के 100 दिन विरोधियों की भविष्यवाणी से बेहतर रहे. वह विभाजक और सांप्रदायिक राजनीतिज्ञ की छवि कुछ हद तक बदलने में कामयाब हुए हैं. यह छवि 2002 गुजरात दंगों के बाद से ही उनके साथ जुड़ी रही और चुनाव प्रचार के दौरान भी उन्हें इसे बदलने पर काफी मेहनत करनी पड़ी. लेकिन अब ऐसा लगता है कि वह अपने सामूहिक विकास के वादे को संजीदगी से ले रहे हैं.

स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से उनके भाषण ने कई लोगों को बेहद हैरान किया. उसमें हिन्दूवाद पर आधारित कोई ऐसी बात नहीं थी जिसकी कई लोग उम्मीद कर रहे थे. बल्कि मोदी का बिना कागज के देश की समस्याओं पर आधारित भाषण उन्हें एक कुशल राजनेता के रूप में दिखाने में कामयाब रहा. उन्होंने देश में महिलाओं की दशा सुधारने और पितृसत्तात्मक सोच को बदलने की बात कही. उन्होंने हर भारतीय के लिए बैंक खाता खोले जाने की भी बात कही, ताकि एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को मजबूती दी जा सके. मीडिया में भी उनके भाषण की सकारात्मक प्रतिक्रिया रही.

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ग्रैहम लूकस डॉयचे वेले के दक्षिण एशिया विभाग के प्रमुख हैंतस्वीर: DW/Matthias Müller

मोदी अपने विरोधियों को यह भी जता चुके हैं कि उन्हें इतनी आसानी से किनारे नहीं किया जा सकता. खाद्य सब्सिडी पर उन्होंने विश्व व्यापार संगठन का समझौता न मानकर सबको हैरान किया. इस सौदे ने मोदी के उन वादों पर भी सवाल खड़े कर दिए जिनमें उन्होंने भारत के लाखों गरीबों के लिए खाद्य सुरक्षा की बात कही थी. अब तक के कार्यकाल में एक अहम कदम रहा कि उन्होंने भारत सरकार में व्याप्त नौकरशाही पर नकेल कसी और राष्ट्रीय योजना आयोग का खात्मा किया, जिसकी देश की अर्थव्यवस्था पर खासी पकड़ थी.

विदेश मामलों में मोदी द्वारा की जा रही पहल भी भारत को एशिया में एक मजबूत देश के रूप में स्थापित करने की कोशिश है. नेपाल और भूटान यात्रा भी इसी बात पर जोर देती है कि भारत का क्षेत्रीय दबदबा बरकरार है. जापान यात्रा के दौरान उन्होंने दोनों देशों के बीच व्यापारिक संबंधों की बेहतरी पर जोर दिया. अहम बात यह कि चीन की विस्तारवाद की नीति के जवाब में उन्होंने टोक्यो के साथ कूटनीतिक और सैन्य साझेदारी में भारत की दिलचस्पी दिखाई. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से सितंबर में होने वाली मुलाकात में मोदी दुनिया के सामने भारत की मजबूत छवि रखने की कोशिश करेंगे. लेकिन इन्हीं 100 दिनों में पाकिस्तान के साथ प्रस्तावित बातचीत रद्द भी हुई.

हालांकि हॉट सीट पर तीन महीने से ज्यादा बिता लेने के बाद देश की आंतरिक राजनीति में कई कमियां सामने आ रही हैं. राजनीतिक स्तर पर सफाई के वादे उनके करीबी अमित शाह के भाजपा अध्यक्ष बना देने के साथ ही दागदार दिखने लगे. शाह पर हत्या के आरोप भी हैं. मोदी के इस कदम की कड़ी निंदा भी हुई. साथ ही हिन्दू राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ उनके तार और संघ के सदस्यों को अच्छे पदों का मिलना उन पर एक बार फिर सवालिया निशान लगाता है. इन फैसलों ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया कि क्या मोदी भारत को एक हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते हैं.

उनके अब तक के फैसले नेता के रूप में उनके बारे में काफी कुछ कहते हैं. प्रधानमंत्री पद की ताकत आते ही उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों लाल कृष्ण अडवाणी और मुरली मनोहर जोशी को किनारे कर दिया. चुनाव प्रचार के दौरान सोशल मीडिया पर चल रहा उनका पेज चुनाव के बाद भी सक्रिय है. लेकिन वे उन खतरों से वाकिफ हैं जो मीडिया से उनकी सरकार को हो सकते हैं. उन्होंने अपने मंत्रियों को मीधे मीडिया से बात करने या सरकारी मामलों से संबंधित कोई भी ट्वीट करने से रोक रखा है. एक कैबिनेट मीटिंग के दौरान रिलीज हुई उनकी एक फोटो में उन्हें मंत्रियों के सामने ऊंची कुर्सी पर बैठे दिखाया गया है. संदेश बहुत साफ है, "मैं मोदी फैसले लेता हूं."

ताकत का किसी एक हाथ में सिमटते हुए दिखना लोकतंत्र के लिए बुरा संकेत है. फिलहाल भारत मोदी को समय दे रहा है. हालांकि अगर मोदी चुनाव प्रचार के दौरान किए गए अपने वादों को निभाने में नाकाम रहते हैं तो जनता का फैसला और माहौल बदल भी सकता है. फैसला अभी आना बाकी है.

समीक्षा: ग्रैहम लूकस