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म्यांमार की आजादी के 65 साल

४ जनवरी २०१३

बर्मा ने 65 साल पहले अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई जीती. अंग्रेज तो चले गए, लेकिन देश पूरी तरह आजाद नहीं हो पाया. हाल ही में हुए राजनीतिक बदलावों को देखते हुए अब एक नई शुरुआत की उम्मीद जगी है.

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तस्वीर: Reuters

4 जनवरी 1948 को ब्रिटेन के सैनिकों ने रंगून में संसद से अपना झंडा यूनियन जैक हटा लिया. कुछ ही देर बाद देश का झंडा लहराया गया. एक नीले चौकोर पर छह सफेद सितारों वाला लाल रंग का झंडा. इसके साथ ही देश पर अंग्रेजों का शासन खत्म हुआ और इसके बाद बर्मा एक गणतंत्र के रूप में दुनिया के सामने आया. लेकिन यह झंडा इस बहुसांस्कृतिक देश में हर किसी को पहचान दिलवाने में कामयाब नहीं रहा. विभिन्न सम्प्रदायों के बीच लगातार संघर्ष होते रहे और देश कभी खत्म ना होने वाले विवाद में जा घिरा. कोई सरकार, कोई सेना इस संघर्ष को खत्म करने में कामयाब नहीं हुई. लोग जिस पहचान के लिए लड़ रहे थे वह उन्हें नहीं मिली. डॉयचे वेले से बातचीत में म्यांमार पर रिसर्च करने वाले हंस बेर्न्ड सोएलनर ने कहा, "1948 में जब से देश को आजादी मिली है, तब से वह लगातार गृह युद्ध के साथ ही जी रहा है, जो कि आज तक चल रहा है".

USA Burma Myanmar Präsident Barack Obama in Rangun
तस्वीर: dapd

देश में बदलाव

1989 में बर्मा का नाम बदल कर म्यांमार रखा गया. नाम जरूर बदला पर देश के हालात नहीं बदले. लेकिन 2010 में जो राजनीतिक बदलाव हुए उन्होंने दुनिया को हैरान कर दिया. बर्मा कैम्पेन के मार्क फार्मानर ने सुधारों का स्वागत किया है, लेकिन साथ ही वह हिंसा के बढ़ते मामलों की ओर भी ध्यान खींचते हैं, "म्यांमार में एक मिली जुली सी छवि देखने को मिलती है. एक तरफ तो प्रभावशाली बदलाव हैं और दूसरी तरफ हमें साम्प्रदायिक हिंसा के बढ़ते मामलों का भी सामना करना पड़ रहा है. एक तरफ तो देश के कुछ हिस्से उन्नति करते दिख रहे हैं, वहीं कुछ ऐसे भी हैं जहां हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं." नए साल के दूसरे ही दिन उत्तर पूर्वी राज्य काचिन में सेना और काचिन इंडेपेंडेंस ऑर्गेनाइजेशन (केआईओ) के बीच झड़पों की खबर आई.

फार्मानर इस बीच आठ बार म्यांमार जा चुके हैं और देश में चल रहे बदलावों को करीब से महसूस कर रहे हैं. उनका कहना है कि वह देश में एक नई शुरुआत की संभावना देखते हैं, "पहले लोग केवल बदलाव से ही खुश थे, लेकिन अब वे सवाल करने लगे हैं." उनका कहना है कि देश में चल रही हिंसा को रोकना बेहद जरूरी है. साथ ही राजनैतिक कैदियों की रिहाई, नए कानून बनाना, सरकारी ढांचे में पारदर्शिता और एक बेहतर जीवनस्तर का होना जरूरी है.

Proteste von Mönchen in Myanmar
तस्वीर: dapd

आजादी की तीसरी लड़ाई

म्यांमार के लिए आज सबसे बड़ी चुनौती है लोकतंत्र की राह पर आगे बढना औरलेकिन साथ ही देश को एकजुट भी रखना. सोएल्नर बताते हैं कि इस राह में सबसे बड़ी मुश्किल क्या है, "यह देश एक राज्य है, पर राष्ट्र नहीं. कुल मिला कर एक पहचान नहीं है. इस वक्त हम आजादी के लिए तीसरी लड़ाई का सामना कर रहे हैं." 1988 में आंग सान सू ची ने आजादी की दूसरी लड़ाई का जिक्र किया था. उस वक्त राजधानी रंगून में सू ची ने पांच लाख प्रदर्शनकारियों के सामने यह बात कही थी. इस दूसरी लड़ाई से उनका मतलब था देश में राजनैतिक और सामाजिक तौर पर बदलाव लाना. इसके बाद सैनिक शासकों ने प्रदर्शनों पर रोक लगा दी और सू ची को नजरबंद कर दिया गया.

म्यांमार की जनता के बीच सू ची जितनी लोकप्रिय हैं राष्ट्रपति थेन सेन उतने नहीं हैं. सोएल्नर की सलाह है कि नागरिक राजनेताओं पर नहीं, सरकार पर भरोसा जताएं, "दोनों की ही मंशा अच्छी है, लेकिन वे इकलौते नायक नहीं हैं. पूरी संस्था को छोड़ कर, जिस पर लोकतंत्र की नींव रखी जानी है, अगर केवल दो लोगों पर पूरा ध्यान दिया जाएगा, तो यह खतरनाक साबित हो सकता है." ऐसे में सरकार के नए रूप से गठन की जरूरत है.

रिपोर्ट: रोडियोन एबिगहाउजेन/आईबी

संपादन: महेश झा

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