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यह बस कहां तक जाएगी

शिवप्रसाद जोशी २७ नवम्बर २०१४

कभी भारत पाकिस्तान के बीच बस सेवा का शुभारंभ हुआ था. सौहार्दपूर्ण कूटनीति को आज दूसरे पड़ोसी नेपाल के साथ भारत ने सीधी बस सेवा शुरू कर आगे बढ़ाया है. लेकिन भारत-नेपाल संबंधों की रुकावटें क्या इतने भर से दूर हो पाएंगी.

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तस्वीर: UNI

1999 में शुरू हुई दिल्ली लाहौर बस सेवा की तर्ज पर दिल्ली-काठमांडू के बीच सीधी बस सेवा के उद्घाटन ने भारत-नेपाल संबंधों के बारे में नई छवियां और नये संदेश प्रेषित किये हैं. दरअसल भारत और नेपाल के संबंध सिर्फ द्विपक्षीय निगाह से नहीं देखे जा सकते, बल्कि व्यापक परिप्रेक्ष्य में ये सार्क देशों और भारतीय उपमहाद्वीप में सामरिक साझेदारी से जुड़ा एक महत्त्वपूर्ण कदम है. इसका प्रभाव विश्व राजनीति में भारत की रणनीतिक उपस्थिति के रूप में भी देखा जाएगा.

सार्क देश पूरी दुनिया के भूगोल का तीन प्रतिशत हैं और विश्व आबादी के 21 प्रतिशत लोग यहां निवास करते हैं. सार्क देशों के कुल भूक्षेत्र, आबादी और अर्थव्यवस्था का करीब 70 प्रतिशत भारत में है. आठ देशों के संगठन सार्क में भारत एकमात्र ऐसा देश है जिसकी सीमाएं सात सार्क देशों से जुड़ती हैं जबकि आपस में वे देश जुदा-जुदा हैं. भारत एक लंबी सीमा चीन से साझा करता है जो उसे गाहे-बगाहे अपनी ताकत का अहसास कराता रहता है. नेपाल इसी भारत-चीन सीमा के दरम्यान आता है.

भारत का अपने पड़ोसी देशों से राजनीतिक टकराव है इसलिए जरूरी है कि वह कम से कम नेपाल को एक भरोसेमंद पड़ोसी के रूप में विकसित करे, उसे विश्वास में रखे और बिग ब्रदर का रवैया त्याग दे. आंतरिक उथल-पुथल का शिकार नेपाल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक वजहों से भारत के करीब भी रहा है और सत्तासीन बीजेपी जिस हिंदूवादी राजसत्ता और समाज को आदर्श मानती है उसका प्रत्यक्ष प्रमाण भी.

एक अरब डॉलर की जो आर्थिक मदद भारत ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली नेपाल यात्रा में देने की घोषणा की थी अब उसके अमल के लिये योजनाओं पर भी हस्ताक्षर हुए हैं. लेकिन बात सिर्फ बस चलाने की या परियोजनाओं के उद्धाटनों की नहीं है. भारत को इस खुशफहमी से बचना होगा कि नेपाल के साथ रोटी-बेटी का सांस्कृतिक संबंध है लिहाजा जैसा चल रहा है वैसा ही चलता रहे. नेपाल ने इस बीच अपनी राजनैतिक और कूटनीतिक महत्वकांक्षाओं का किंचित विस्तार किया है और चीन के प्रति उसके संबंध सांस्कृतिक न भी हों तो आज के दौर के हिसाब से काफी कारोबारी हो चले हैं.

नेपाल के निर्माण सेक्टर में चीन का अच्छा-खासा दखल रहा है. प्रस्तावित परियोजनाएं भी भारत से ज्यादा हैं और लाजिमी है कि वे धीरे धीरे अपनी पैठ पहले कारोबार और फिर अन्य तरीकों से बनाएगा. भारत को इसलिए आंख कान न सिर्फ खुले रखने चाहिए बल्कि उसे हरकत में भी रहना होगा. चीन के विस्तारवाद को कहीं नेपाल में स्थायी प्रश्रय न मिल जाए, ये देखना जरूरी है.

नेपाल में भले ही अब राजशाही नहीं है और न ही उस पर हिंदूवादी राष्ट्र होने का ठप्पा है. लेकिन दिक्कत यह है कि भारत के हिंदूवादी, सांस्कृतिक राष्ट्रवादी और इनका एक बड़ा नेटवर्क नेपाल को अभी भी हिंदूवाद की एक स्थली की तरह ही देखता है. उन्हें लगता है अयोध्या से जनकपुर की यात्राएं निकालकर वे अपने एजेंडे को जीवित रख सकते हैं. मोदी ने कूटनीतिक वजहों से इस यात्रा को इग्नोर ही किया लेकिन यह देखना जरूरी है कि ऐसा वे कब तक करते रह पाएंगें.

नेपाल भले ही एक छोटा सा देश है लेकिन वह दक्षिण एशियाई भूगोल में अपनी सामरिक और निर्णायक जगह को पहचानता है. उससे आप भूटान की तरह पेश नहीं आ सकते हैं. और फिर भूटान को भी आप कब तक राजशाही के समर्थन के साथ अपने दायरे में रखेंगे? तेजी से बदलती वैश्विक राजनैतिक स्थितियों में, भूटान में आने वाला वक्त कौनसी दिशा लेगा, कहना मुश्किल है.

इसीलिए दिल्ली से काठमांडू के बीच बस चलाई जाए, यह तो अच्छा है, लेकिन इस बस को सामरिक सजगता के साथ चलाएं. ड्राइविंग सीट पर भारत की विदेश नीति है लिहाजा उसका यह एक कड़ा इम्तहान भी है.