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फांसी पर राजनीति

ईशा भाटिया१९ जुलाई २०१५

1993 मुंबई हमलों के आरोपी याकूब मेमन को 30 जुलाई को फांसी दी जा सकती है. महाराष्ट्र सरकार फांसी की सजा को जल्द से जल्द अमल में लाने के लिए काफी उत्सुक नजर आ रही है. क्या मेमन की सजा राजनीति से प्रेरित है?

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल के अनुसार 2014 में भारत सबसे ज्यादा मौत की सजा सुनाने वाले दस देशों की सूची में शामिल था. भले ही भारत में अदालत की दलील है कि फांसी 'रेयरेस्ट ऑफ दी रेयर' मामलों में ही दी जाती है, लेकिन संख्या बढ़ रही है. हालांकि सजा का अमल में लाना वाकई 'रेयर' है. पिछले 15 सालों में कुल तीन लोगों को सूली पर लटकाया गया है. 2004 में बलात्कार और कत्ल के मामले में बंगाल के धनंजय चैटर्जी को फांसी दी गयी. उसके बाद नवंबर 2012 में 26/11 मुंबई हमलों में पकड़े गए अजमल कसाब को और उसके तीन महीने बाद ही 2001 के संसद हमलों के मास्टर माइंड अफजल गुरु को. दो साल में दो फांसी के मामलों ने ना केवल देश में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी भारत के रुख को चर्चा में ला खड़ा किया. 2014 में नई सरकार के आने के साथ शांति रही और अब 2015 में एक बार फिर याकूब मेमन की फांसी पर चर्चा शुरू हो गयी है.

1993 मामले में मेमन समेत 11 लोगों को फांसी की सजा सुनाई गयी थी. इनमें से दस को उम्रकैद में तब्दील किया जा चुका है. केवल मेमन के मामले में राष्ट्रपति ने भी अपील ठुकरा दी और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अपने फैसले को सुरक्षित रखा. मेमन पर हमले के लिए धन जुटाने का आरोप है. अजमल कसाब, अफजल गुरु और याकूब मेमन, जानकार इन तीनों ही मामलों को राजनीति से प्रेरित मानते हैं. कसाब और गुरु को फांसी ऐसे वक्त में दी गयी थी जब चुनाव सामने थे और यूपीए सरकार राष्ट्र के हित में अपने कड़े रुख का उदाहरण देना चाहती थी. अब महाराष्ट्र सरकार की मेमन को सूली पर लटकाने की उत्सुकता भी कुछ वैसी ही है. एक मुद्दा यह भी उठ रहा है कि तीनों ही आरोपी मुसलमान हैं और उनकी कोई राजनीतिक पहुंच नहीं है, इसलिए उनका रुख सामने नहीं रखा जा रहा.

डॉयचे वेले से बातचीत में हाई कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस ढींगरा ने भी माना कि कानूनी प्रक्रिया में पैसा और पहुंच बड़ी भूमिका निभाते हैं. उन्होंने कहा, "ऐसे कई मामले हैं जहां कुछ वकीलों के चलते मुवक्किलों को रविवार को भी जमानत मिली है. लेकिन रविवार को आम आदमी के लिए अदालत नहीं खुलती, उसकी सुनवाई आधी रात को भी नहीं होती. आदमी जेल में बिना सुनवाई के कई साल गुजार देता है, हो सकता है कि उसकी अपील लंबित ही हो." ऐसे में 'फांसी की सजा दी जानी चाहिए या नहीं', बहस इस मुद्दे से खिसक कर यहां पहुंच गयी है कि राजनीति का कानूनी प्रक्रियाओं में दखल होना चाहिए या नहीं.