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यूरोप में भी बच्चियों से बैर

७ जनवरी २०१३

लड़कियों की संख्या केवल भारत में ही कम नहीं हो रही प्रगतिशील कहे जाने वाले पश्चिमी देशों में भी हालात अच्छे नजर नहीं आते. यूरोप के कई देशों में कन्या भ्रूण हत्या के मामले बढ़ रहे हैं.

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तस्वीर: AP

खास तौर से पूर्व और दक्षिण पूर्व यूरोप में हालात ज्यादा बुरे हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार हर 100 लड़कियों पर 105 लड़कों का होना सामान्य जैविक लिंग अनुपात है. चीन में यह अनुपात 100:120 और भारत में 100:130 है. बाल्कन देशों में यह संख्या भले ही इतनी हैरान कर देने वाली न हो, लेकिन चिंताजनक जरूर बन गयी है. मिसाल के तौर पर अल्बानिया में हर सौ लड़कियों पर 112 लड़के हैं, कोसोवो में 110 और मॉन्टेनेग्रो में 109 हैं. ये आंकड़े जनसंख्या पर अनुसंधान करने वाले संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी यूएनएफपीए ने जारी किए हैं.

खुदकुशी पर मजबूर

जानकार परिवारों के रूढ़िवादी ढांचे को इसकी वजह मानते हैं. भारत की ही तरह इन देशों में भी माना जाता है कि लड़के खानदान का नाम आगे बढ़ाते हैं, जबकि लड़कियां तो शादी कर पराये घर चली जाती हैं. ब्रसेल्स में यूरोपीय संसद में ग्रीन पार्टी की पर्तिनिधि फ्रांसिस्का ब्रांटनर ऐसी सोच के पीछे कई बातों को जिम्मेदार मानती हैं, "एक तो गरीबी ही है, गर्भ निरोधन महंगा भी है और लोगों को पूरी जानकारी भी नहीं है, साथ ही महिलाओं के खिलाफ भेद भाव भी किया जाता है."

Symbolbild Zwangsheirat
तस्वीर: Fotolia/macgyverhh

ब्रांटनर यूरोपीय संसद में महिला अधिकारों के लिए बनाई गयी कमेटी की सदस्य हैं. उनका कहना है कि अल्बानिया में गर्भ निरोधन को ले कर हालात वैसे ही हैं जैसे किसी विकासशील देश में. वह बताती हैं, "आपको ऐसा लग सकता है कि पुरुष प्रधान समाज में लड़कियों को राजकुमारी बना कर रखा जाता है, लेकिन सच्चाई बहुत बुरी और हिंसा से भरी है."

यूएनएफपीए की नई रिपोर्ट के अनुसार इन देशों में कम उम्र में लड़कियों का जबरन विवाह भी कराया जा रहा है. इतना ही नहीं, यहां लड़कियों के खुदकुशी के मामलों में भी वृद्धि हुई है.स्विट्जरलैंड में पार्लियमेंट असेंबली काउंसिल ऑफ यूरोप (पेस) की डोरिस श्टुम्प का कहना है, "औरतें कई तरह से हिंसा का शिकार होती हैं. उनका किसी वस्तु की तरह दूसरे देशों से आयात किया जाता है."

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तस्वीर: Fotolia/Herby ( Herbert ) Me

'अबॉर्शन टूरिज्म'

इन देशों में कन्या भ्रूण हत्या के मामले भी बढ़ते चले जा रहे हैं. अल्ट्रासाउंड की मदद से डॉक्टर गर्भावस्था के 14वें हफ्ते से भ्रूण के लिंग का पता लगा सकते हैं. भारत की ही तरह यूरोप के कई देशों में भ्रूण के लिंग की जांच करना अवैध है. कई देशों में तो गर्भपात की ही मनाही है, हालांकि ऐसा अधिकतर धार्मिक कारणों से है. जर्मनी में पहले तीन महीनो तक गर्भपात की अनुमति है. इसके बाद आप चाहें तो बच्चे के लिंग की जांच करा सकते हैं. लेकिन इसके बाद गर्भपात नहीं कराया जा सकता. जबकि अमेरिका में ऐसा किया जा सकता है.

अल्बानिया और मैसेडोनिया के जन्म दर पर ध्यान दिया जाए तो साफ पता चलता है कि कानून का उल्लंघन किया जा रहा है. वहां अवैध रूप से कन्या भ्रूण हत्या हो रही है. वहीं स्वीडन का नाम 'अबॉर्शन टूरिज्म' से जुड़ गया है. स्वीडन में 18वें हफ्ते तक गर्भपात कराया जा सकता है. यूरोपीय संघ के अलग अलग देशों में अलग अलग कानून होने का भी लोग फायदा उठा रहे हैं. एक देश में लिंग जांच कराने के बाद वे दूसरे देश में जा कर गर्भपात करा लेते हैं. आंकड़े बताते हैं कि नॉर्वे और ब्रिटेन में रह रहे एशियाई मूल के लोगों के लिंग अनुपात की अगर दूसरे लोगों से तुलना की जाए तो भारी फर्क देखने को मिलता है.

Symbolbild Geschlechterselektion in der EU
तस्वीर: Gent Shkullaku/AFP/Getty Images

कोई कानून नहीं

इसके अलावा आईवीएफ जैसी तकनीक में भी भ्रूण का लिंग निर्धारित किया जा सकता है. इसे प्रीइम्प्लांटेशन जेनेटिक डायग्नोसिस या पीजीडी कहा जाता है. कोलोन में रहने वाली जानकार क्रिस्टियान वूपन बताती हैं, "यूरोप में आंकड़े दिखाते हैं कि कई बार जब दंपतियों के तीन बेटे या तीन बेटियां हो जाती हैं तो दूसरे लिंग के भ्रूण का आरोपण किया जाता है." जर्मनी में पीजीडी का इस्तेमाल 'एथिक्स काउंसिल' के साथ सलाह मशवरे के बाद ही किया जा सकता है. इसीलिए वूपन की मांग है कि इस तकनीक को जर्मनी तक ही सीमित रखा जाए, क्योंकि अन्य देशों में इस तकनीक का गलत रूप से इस्तेमाल किया जा रहा है.

यूरोपीय संसद का मानना है कि गर्भपात और गर्भधारण को ले कर कड़े कानून का होना बेहद जरूरी है. लेकिन फिर भी यूरोपीय संघ में अब तक ऐसे कनून बनाने पर चर्चा नहीं हो पाई है. अब तक के नियमों के अनुसार ऐसे कानून देश ही अपने लिए निर्धारित कर सकते हैं. ब्रांटनर का कहना है कि ऐसे में महिला अधिकारों को ले कर जागरूकता लाने की जरूरत है,"यह केवल स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ नहीं है, यह मानवाधिकार का मुद्दा है."

रिपोर्टः क्लाउडिया हेनन/ ईशा भाटिया

संपादनः एन रंजन

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