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राजनीति का सूखा और पानी का हाहाकार

२१ मार्च २०१३

महादेश के एक प्रमुख राज्य महाराष्ट्र में और देश की वाणिज्य राजधानी और दुनिया में फिल्मों की सबसे बड़ी उत्पादन नगरी मुंबई से कुछ दूर लगा है औरंगाबाद.

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तस्वीर: AP

सड़क से कोई साढ़े पांच घंटे का सफर. करीब 350 किलोमीटर. औरंगाबाद उस मराठवाड़ा इलाके का एक बड़ा जिला है जहां पानी का हाहाकार है. बाकी जिलों में यही स्थिति है. उधर उत्तरी महाराष्ट्र में सोलापुर, सांगली और सतारा जैसे कई जिलों में भी यही हालात हैं और उस विदर्भ पर तो ये जल संकट दोहरी मार की तरह है जो किसानों की आत्महत्या से यूं भी टूटा सहमा हुआ है और किसी तरह जिंदगी की डोर थामे हुए है. महाराष्ट्र इस समय चालीस साल के सबसे बड़े सूखे से जूझ रहा है.

लेकिन सूखा और अकाल यकायक नहीं चले आए. इनकी पृष्ठभूमि बन रही थी, वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी और सरकार को अग्रिम तैयारियों के बारे में भी बताया गया था, लेकिन सरकारों के पास वक्त कहां. ये वही दौर था जब महाराष्ट्र सरकार में उथलपुथल थी. अजीत पवार इस्तीफा दे चुके थे, सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप थे. उधर बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष और महाराष्ट्र के ही निवासी नितिन गडकरी स्थानीय संसाधनों के दुरुपयोग के आरोपों और दूसरे भी कई किस्म के आरोपों से घिर गए थे. दुनिया के 22वें नंबर के सबसे अमीर(फोर्ब्स की ताजा सूची) और भारत के सर्वोच्च रईस मुकेश अंबानी का विशालकाय घर एंटिला बनकर तैयार था, सचिन तेंदुलकर शतक नहीं बना पा रहे थे और उनके दीवाने देश भर में हैरान परेशान थे. दबंग के बाद दबंग दो भी हो चुका था, नए सितारे आ जा रहे थे और मुंबई के इन्हीं सपनीले वक्तों में उसके पड़ोसों में रात था कि दिन न जाने कौन सी घड़ी थी कौन सा पहर, जब आम जनता को नसीब होने वाला पानी धरती के नीचे और नीचे न जाने कहां समाता जा रहा था. आखिर उसे इन आम इंसानों की खातिर ऊपर चले आने में क्या परहेज था. आखिर अरब महासागर की उद्दाम लहरें पछाड़ें खाते हुईं किसका मातम मना रही थीं या ये विडंबना की चढ़ती गिरती लहरें थीं महाराष्ट्र के किसानों, आम शहरियों, मजदूरों और गरीबों पर.

अकाल पीड़ित इलाकों के दौरे हो गए हैं. आश्वासनों की घुट्टी पिला दी गई है. लोगों के लिए और उनके पशुओं के लिए पानी के शिविर चल रहे हैं. लोगों को अन्न और पशुओं को चारा मिल रहा है. हर साल सिंचाई, भूमि सुधार, वॉटरशेड, कृषि तालाब, वॉटर रिचार्जिंग, ट्यूबवेल जैसे कामों के लिए राज्य में करीब डेढ़ सौ करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं. इन योजनाओं से आखिर पानी क्यों नहीं ठहरता, पानी को रोकने की इन योजनाओं में सदिच्छा की ठोस दीवार नहीं है, बात यही है. फिर आर्थिक पैकेज का झुनझुना. क्या पैकेज की बारिश से सूखे गलों को राहत मिलेगी, सूखी जमीनों में हरकत हो पाएगी. बहुत साल पहले प्रोफेसर अमर्त्य सेन बता चुके हैं कि आखिर सूखा या अकाल जैसी विपदाएं क्योंकर संसाधनों के कुनियोजन और नीतियों के अकाल से आती हैं. किसान क्या फसल बो रहा है, उसे क्या मदद हासिल है इन सब बातों से कृषि पैदावार ही नहीं जल संसाधन भी जुड़ा है. पॉलिसी सपोर्ट क्यों नहीं है किसान के लिए. आखिर किस बिना पर मराठवाड़ा के कई गांवों में किसान बड़े पैमाने पर गन्ना ही बो रहे थे जिसे बहुत सारा पानी चाहिए. आखिर क्यों? क्या ये शुगर लॉबी का जोर है? अनाज का उत्पादन नहीं होगा तो किसान खाएंगे क्या, अपना परिवार कैसे पालेंगे? कैसे उस देश की विराटता के एक कोने में किसी तरह बने रह पाएंगे जिसे गांवों का देश कहा जाता है?

एक तरफ ये विचारहीनता है तो दूसरी ओर एक अलग ही किस्म का विद्रूप है. संत कहे जाने वाले आसाराम बापू के एक सालाना जलसे में पिछले दिनों नागपुर नगर निगम के मुताबिक चालीस हजार लीटर पानी मांगा गया. लेकिन इसका इस्तेमाल बताया जा रहा है कि होली खेलने के लिए किया गया. क्योंकि बापू की होली की भी एक भव्यता है. हालांकि बापू समर्थकों का कहना है कि पानी का दुरुपयोग नहीं किया गया, लेकिन जांच तो की ही जा रही है. महाराष्ट्र का बड़ा हिस्सा पानी के लिए तरस रहा है और बापू के जलसे में पानी की होली का बेफिक्र नजारा है. इसी राज्य में, पी साईनाथ जैसे देश के अकेले कृषि पत्रकार और जानकार के मुताबिक, आजाद भारत की पहली हिल सिटी कही जाने वाली लवासा परियोजना के लिए अपार पानी दिया जा रहा है. साईनाथ ने परियोजना की वेबसाइट के हवाले से बताया है कि कैसे कुछ समय पहले उसमें दर्ज था कि इसे करीब साढ़े चौबीस अरब लीटर पानी स्टोर करने की अनुमति है. और किस किस के लिए रोएंगे आप. पिछले करीब 15 साल में बड़े पैमाने पर पानी बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं को दिया जा रहा है. साईनाथ के मुताबिक सूखाग्रस्त महाराष्ट्र में कई गोल्फ कोर्स बने हैं जिनमें काफी पानी खर्च होता है.

महाराष्ट्र के इस विलाप में आंकड़ों की बात करना अजीबोगरीब तमाशा लग सकता है, लेकिन तथ्य जान लेने चाहिए. करीब 12 हजार गांवों के लाखों लोग इन दिनों अकाल से पीड़ित हैं. सात हजार गांव पीने के पानी के लिए टैंकरों पर निर्भर है. 123 तालुकाओं में अकाल की गंभीर स्थिति है. 414 करोड़ रुपए इस साल जनवरी से लेकर अब तक पानी के टैंकरों पर ही खर्च किए जा चुके हैं. मरने वालों की, तड़पने वालों की, पानी के लिए तरसने वालों की और जीवन से नाउम्मीद हो चुके इंसानों की संख्या भी तो होगी ही. क्या ये आंकड़े हमें डराते नहीं. और सोचिए ये सिर्फ महाराष्ट्र के आंकड़े हैं. हमें ऐसे ही हालात की खबरें देश के दूसरे हिस्सों से मिलने ही वाली हैं. इन दिनों तड़प और वेदनाएं आखिर सुर्खियां बनते बनते वक्त तो लेती ही हैं.

पानी जैसे बुनियादी संसाधन पर समुदाय का हक था, वो हक छीना जा रहा है. कितना पानी उपलब्ध है, इस बात से ज्यादा अहमियत इस बात की है कि उस पानी का क्या इस्तेमाल हो रहा है. पानी को आखिर किसने लालच की और अन्याय की और मुनाफे की जंजीरों में जकड़ दिया है. सोचिए...पानी को. अकाल कुदरत से नहीं आते उन्हें कुछ मनुष्य अपने कपट और स्वार्थ से लाते हैं. और बहुत सारे मनुष्यों के ऊपर छोड़ देते हैं.

ब्लॉगः शिव प्रसाद जोशी

संपादनः महेश झा