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लगाव के साथ जिज्ञासा

१५ मार्च २०१४

पिछले दो दशकों के भीतर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में उभरने वाली गायिकाओं में मीता पंडित अग्रणी हैं. उनका कहना है कि सरकार को संगीतकारों को सहारा देने की और कोशिश करनी चाहिए.

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Meeta Pandit
तस्वीर: Privat

मीता पंडित का संबंध खयाल गायकी के ग्वालियर घराने से है और उनके पीछे समृद्ध एवं गौरवशाली पारिवारिक परंपरा है. उनके पड़दादा शंकर पंडित ग्वालियर घराने के संस्थापक हद्दू खां-हस्सू खां के शिष्य और अपने समय के शीर्षस्थ गायक थे. दादा कृष्णराव पंडित की गिनती बीसवीं शताब्दी के दिग्गज गायकों में होती है और पिता लक्ष्मण पंडित भी ग्वालियर घराने की पंडित परंपरा के सुविख्यात प्रतिनिधि हैं. मीता पंडित देश-विदेश में अपने गायन की प्रभावपूर्ण प्रस्तुतियां देती रहती हैं. वह इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में सलाहकार भी हैं. प्रस्तुत है उनके साथ हुई बातचीत के कुछ अंश:

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के विकास में आपके परिवार का महत्वपूर्ण योगदान है. जाहिर है कि आपने बचपन से ही संगीत सुना और सीखा. लेकिन पूरा जीवन इसी के लिए समर्पित करने का फैसला आपने कब लिया?

संगीत तो बिलकुल बचपन से ही लगातार सुना. घर में दादाजी और पिताजी को तो सुना ही, दादाजी के अनेक शिष्य और अन्य दूसरे बड़े गायक भी हमारे यहां आते रहते थे, तो उनका गाना भी सुनने को मिला. सीखना भी बिना किसी विशेष प्रयास के स्वतः ही चलता रहता था. पहली सार्वजनिक प्रस्तुति 1985 में भोपाल के भारत भवन में आयोजित तीन-दिवसीय कृष्णराव शंकर पंडित प्रसंग के दौरान हुई जब हम तीनों भाई-बहन मंच पर एक साथ गाने आए. उस समय अजीब भी लगता था. घर में जो भी अतिथि आते, वे मेरी पढ़ाई-लिखाई के बारे में कुछ नहीं पूछते. उनका सवाल यही होता कि गाना कैसा चल रहा है, आजकल कौन सा राग सीख रही हो. मैं लेडी श्रीराम कॉलेज में बी.कॉम. के अंतिम वर्ष में थी कि अचानक हम पर वज्रपात हुआ और भाई तुषार का एक दुर्घटना में निधन हो गया. वह उस समय संगीत में पी.एच.डी. कर रहे थे. अतुल संगीत से दूर हो चुके थे. तभी मैंने तय किया कि अपनी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए मुझे पूरी तरह से संगीत को समर्पित होना होगा.

किसी तरह की कोई दिक्कत पेश आई?

दिक्कत तो कुछ नहीं. हां, घर और बाहर के जीवन के बीच एक तरह का विच्छेद था. मेरे पिताजी बहुत स्नेहशील पिता हैं पर बहुत सख्त गुरु भी हैं. कॉलेज में और उसके पहले जब मैं सेंट मेरीज कान्वेंट स्कूल में पढ़ती थी, मैं किसी से भी अपने घर के अनुभव के बारे में बात नहीं कर सकती थी. गणित का क्लास हो रहा है और दिमाग में राग हमीर घूम रहा है. घर में स्कूल के अनुभवों के बारे में कोई बात नहीं होती थी, सिर्फ संगीत ही संगीत. लेकिन अब लगता है कि यदि ऐसा न होता तो मैं ठीक से न सीख पाती. मैंने बी.कॉम. के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से संगीत में एम.ए. और फिर डॉक्टरेट की.

आप तो स्वयं युवा हैं. युवाओं के बीच शास्त्रीय संगीत के प्रति कितना लगाव देखती हैं?

लगाव तो बहुत है. बहुत बड़ी संख्या में युवा सुनने आते हैं. लगाव के साथ-साथ जिज्ञासा भी खूब है. इसीलिए मुझे आश्वस्ति होती है कि हमारे संगीत का भविष्य उज्ज्वल है क्योंकि उसका श्रोता समुदाय लगातार बढ़ रहा है.

कोई दिलचस्प अनुभव?

शुरुआती दौर की बात है. कहीं बाहर कार्यक्रम था और साथ में मेरी मां गई थीं. जब हम वहां पहुंचे तो आयोजकों की ओर से जो हमें लेने आए थे, उन्होंने सारे हार मेरी मां के गले में डाल दिए. लेकिन जब कार्यक्रम के समय मैं तैयार होकर मंच पर पहुंची, तो उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ. उन्होंने बाद में माफी भी मांगी और कहा कि उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि जिस गायिका का इतना नाम हो रहा है वह उम्र में इतनी छोटी है.

इस समय संगीत और संगीतकारों की हालत के बारे में कुछ कहना चाहेंगी?

संगीतकार बनना और फिर उसी के सहारे जीवनयापन करना बहुत कठिन काम है. जब मैंने अपना पूरा समय इसमें लगाने का फैसला लिया, तब मेरे पिताजी ने मुझसे कहा कि सोच लो, रास्ता आसान नहीं है. दरअसल संगीतकार के रूप में कौन सफल होगा और कौन असफल, यह पहले से तो पता नहीं होता. तो एक प्रकार का जोखिम तो है ही. इसीलिए मुझे लगता है कि सरकार और सरकारी संस्थाओं को संगीतकारों को सहारा देने के लिए और भी अधिक कोशिश करनी चाहिए. अधिकांश संगीतकार अभी भी कागजी औपचारिकताएं पूरी करना नहीं जानते, विशेषकर जो दिल्ली जैसे महानगरों में नहीं बल्कि छोटे शहरों या कस्बों में रहते हैं. उन्हें सहारा नहीं मिलेगा तो हमारे  विविधतापूर्ण समृद्ध संगीत का क्षय होगा.

विदेश का अनुभव कैसा रहा?

बेहद अच्छा. मेरी शुरुआत यूरोप से हुई और मैं फ्रांस में तो आर्टिस्ट-इन-रेजीडेंस भी थी. यूरोप की पुरानी सभ्यता है और संगीत की समृद्ध परंपरा है. लोग बहुत ध्यान से सुनते हैं. ईश्वर की मुझ पर कृपा रही और मेरा यूरोप के अलावा अन्य देशों का अनुभव भी बहुत अच्छा रहा, मसलन पाकिस्तान का.

इंटरव्यू: कुलदीप कुमार

संपादन: महेश झा