लाल पीले क्यों नहीं हो रहे रेफरी
२४ जून २०१४कैमरून के खिलाड़ी को लाल कार्ड तक दिया जा सकता था लेकिन उन्हें पीला भी नहीं दिखाया गया. ऐसा लगता है कि कार्ड देने के मामले में इस बार के वर्ल्ड कप फुटबॉल में बहुत नरमी बरती जा रही है. अब तक का औसत पिछले वर्ल्ड कप से करीब करीब एक कार्ड कम का है, जबकि 2006 के जर्मनी वाले वर्ल्ड कप से तो लगभग आधे.
ऐसा नहीं है कि खिलाड़ी बहुत संभल कर खेल रहे हों. खास कर फ्रांस वाले ग्रुप में होंडुरास तो एक बहुत ही आक्रामक टीम बन कर उभरी है, जिसने लगभग हर मैच में विपक्षी टीम के खिलाफ जम कर हाथ पैर चलाए. उसी तरह कैमरून ने भी ब्राजील और क्रोएशिया के खिलाफ "हिंसक फुटबॉल" खेली. क्रोएशिया के खिलाफ मैच में एलेक्जेंद्रे सोंग को लाल कार्ड दिखाया गया और उन पर तीन मैच की पाबंदी लगी. लेकिन आम तौर पर रेफरी कार्ड दिखाने के मामले में पीछे चल रहे हैं.
हो सकता है कि शुरुआती चरणों में मैच के दौरान रेफरी थोड़ी ज्यादा नरमी बरत रहे हों और नॉकआउट दौर में जाते जाते उनके हाथ पीले और लाल कार्ड वाले पॉकेटों में ज्यादा जाएं. लेकिन इस दौरान हो रही घटनाओं से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है. पुर्तगाल और जर्मनी के बीच खेले गए मैच में जब पुर्तगाली डिफेंडर पेपे ने जर्मन स्ट्राइकर थॉमस मुलर के सिर पर अपनी खोपड़ी मार दी, तो सबकी नजरें वहां गईं. पेपे को रेड कार्ड भी मिला. लेकिन जब अमेरिका के कप्तान क्लिंट डेंप्सी की घाना के खिलाफ मैच में जॉन बोये के बूट से टकराने पर नाक टूट गई, तो कोई जिक्र नहीं हुआ. बोये को कोई कार्ड नहीं दिखाया गया.
इसी तरह स्विट्जरलैंड के स्टीव फॉन बेर्गेन को फ्रांस के ओलिवर गिरोर्ड ने ऐसी ठोकर मारी कि फॉन बेर्गेन का जबड़ा टूट गया लेकिन फ्रांसीसी खिलाड़ी को चेतावनी भर मिली. ब्राजीली स्टार नेमार ने तो पहले ही मैच में क्रोएशिया के एक खिलाड़ी को पूरी ताकत से कुहनी मार दी. फुटबॉल के नियमों के मुताबिक नेमार को लाल कार्ड मिलना चाहिए था लेकिन उन्हें पीले पर ही छोड़ दिया गया.
फीफा के नियम नंबर 12 में विस्तार से फाउल और दुर्व्यवहार का जिक्र है, जिसमें पीले और लाल कार्ड के प्रावधानों के लिए सात सात नियम हैं. किसी खिलाड़ी पर "थूकने, टक्कर मारने, हिंसक तरीके से खेलने और खतरनाक फाउल" पर लाल कार्ड दिया जा सकता है. हल्के फाउल और खेल में बाधा पहुंचाने या फ्री किक जैसे मौकों में तय जगह पर खड़े न होने पर भी पीला कार्ड दिखाया जाता है. हाल के दिनों में फीफा ने यह भी तय किया है कि "चोट का नाटक करने वाले खिलाड़ियों" को भी पीला कार्ड दिखाया जाए, ताकि खेल में बिना मतलब बाधा न पहुंचे.
लेकिन वर्ल्ड कप में इन नियमों को फिलहाल बहुत ज्यादा पालन होता नहीं दिख रहा है. हो सकता है कि नरमी की वजह यह है कि अच्छे खिलाड़ियों को अहम मैचों में बैठना न पड़ जाए. और यह भी हो सकता है कि नॉक आउट दौर में ज्यादा कार्ड देखने को मिलें. लेकिन फुटबॉल का मजा खेल भावना में ही है और खेल भावना बनाए रखने के लिए नियमों का सख्ती से पालन तो होना ही चाहिए.
इसमें एक बदलाव यह है कि एक पीला कार्ड लेकर नॉक आउट में जाने वाले खिलाड़ी का कार्ड पहले नहीं गिना जाता था लेकिन 2010 वर्ल्ड कप से उसे क्वार्टर फाइनल तक गिना जाएगा. यानि अगर तब तक पांच मैचों के दौरान उसे दो यलो कार्ड मिलते हैं, तो वह सेमीफाइनल में नहीं खेल पाएगा. पर सेमीफाइनल में यलो कार्ड मिलने के बावजूद उस खिलाड़ी को फाइनल में खेलने का अधिकार होगा.
फीफा चाहती है कि खिताबी मुकाबले में उतरने वाली टीम अपनी पूरी ताकत के साथ उतरें. नियमों के उतार चढ़ाव की वजह से 2002 के वर्ल्ड कप फाइनल में जर्मनी के मिषाएल बलाक ब्राजील के खिलाफ नहीं खेल पाए थे, जिन्हें उससे ठीक पहले दो पीले कार्ड दिखाए गए थे.
ब्लॉग: अनवर जे अशरफ
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी