1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

लिव इन रिलेशनशिप पर बहस तेज

२५ अक्टूबर २०१०

लिव इन रिलेशनशिप पर हाल में आए सुप्रीम कोर्ट के एक अहम फैसले के बाद इस बारे में बहस तेज हो गई है. समाज में हो रहे इस बदलाव और उससे पैदा होते टकराव के बीच आप खुद को कहां पाते हैं.

https://p.dw.com/p/Pmck
तस्वीर: AP

भारत में आज भी मानते हैं कि शादी का जोड़ा भगवान ही बनाता है लेकिन पश्चिम की हवा में बहते आज के युवा शादी को ठेंगा दिखा कर कह रहे हैं, बिन फेरे हम तेरे. यह बात है लिव इन रिलेशनशिप की यानी बिना शादी एक महिला और पुरूष का साथ साथ रहना.

कानूनी कसौटी

शादी के सदियों पुराने बंधन को टाटा बाय बाय कहता आज का यूथ लिव इन रिलेशनशिप को भले ही सामाजिक मूल्यों में बदलाव मानता हो, लेकिन बदलाव से होने वाले स्वाभाविक टकराव को रोकने के लिए अदालत को सामने आना पड़ा है. कारण यह है कि सरकार इस तरह के मसलों पर कानून बना कर बेकार के पचड़ों में पड़ना नहीं चाहती.

सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन रिलेशनशिप में रह रही महिलाओं के अधिकार और सीमाएं तय करने के लिए खुद पहल की है. अदालत ने पहले लिव इन रिलेशन को जायज ठहराया और अब इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ मानक तय कर दिए.

Indianischer Tanz
बदल रही हैं परंपराएंतस्वीर: AP

इन मानकों के बारे में वरिष्ठ वकील अशोक अग्रवाल बताते हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि लिव इन रिलेशन के लिए लड़का और लड़की को अविवाहित होना चाहिए, लेकिन इनकी उम्र शादी करने लायक होनी चाहिए. दोनों लंबे समय से एक दूसरे के साथ समाज की नजरों में पति पत्नी की तरह रह रहे हों. इन शर्तों को पूरा करने वाली महिला ही गुजारा भत्ता पाने की हकदार होगी."

जेन नैक्स्ट की राय

कानून तो अपनी जगह ठीक है लेकिन भारतीय समाज के तानेबाने से बिल्कुल विपरीत लिव इन रिलेशनशिप के बारे में युवा क्या सोचते है. दिल्ली की आईपी यूनिवर्सिटी की छात्रा शिवानी शर्मा कहती हैं, "यह एक सामाजिक बदलाव है और इसे मैं एक अच्छा बदलाव मानती हूं. इससे लोगों को अपनी मर्जी से रहने का मौका मिलता है. इसलिए लिव इन रिलेशनशिप में कोई बुराई नहीं है, ना ही समाज को यह प्रभावित करता है."

समाज के बंधनों को नए सिरे से देखने वाली युवा को लिव इन रिलेशनशिप की रीत तो भा रही है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ बंदिशें लगा दी है. इस पर शिवानी कहती है. "मैं लिव इन रिलेशनशिप की हिमायती हूं लेकिन कोर्ट के फैसले को भी सही मानती हूं, क्योंकि अगर दुरुपयोग से रोकने के लिए कोर्ट कोई व्यवस्था करता है तो यह फायदेमंद ही है. इसमें बंदिश जैसी कोई बात नहीं है."

बड़े शहरों में इस तरह के बदलावों को जल्द मान्यता मिल जाती है लेकिन यह बात भी गौर करने वाली है कि पढ़ाई या नौकरी के सिलसिले में बड़े शहरों में आने वाले छोटे शहरों के नौजवान भी अब लिव इन रिलेशनशिप को आगे बढ़ाने में अपना योगदान दे रहे है. बिहार से ताल्लुक रखने वाले युवा टीवी पत्रकार संदीप झा कहते हैं, "अगर समाज में सभी को अपनी मर्जी चलाने की आजादी दे दी जाए और सांस्कारिक बंधनों से मुक्त कर दिया जाए, तब तो समाज अराजक हो जाएगा. लिव इन रिलेशनशिप में दो आजाद ख्यालों के लोगों के एक साथ रहने में कोई बुराई न होने की बात की जाती है, लेकिन ऐसी संस्था का क्या फायदा जिसके हिमायती लोग अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होने की बात करते हैं."

कानून की दरकार

अब बात आती है कि सरकार और संसद अब तक क्यों आंखें मूंदे बैठी हैं जबकि लिव इन रिलेशन में रह रही महिलाएं अपने हक के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा रही हैं. कानून के अभाव में दिया गया सुप्रीम कोर्ट का फैसला विधायिका के लिए साफ संकेत है कि इस बदलाव के मुताबिक कानून बनाने का अब वक्त आ गया है. अशोक अग्रवाल का कहना है, "निश्चित रूप से यह फैसला सरकार के लिए साफ संदेश है कि उसे कानून बनाना चाहिए. इसके अलावा यह फैसला आने वाले समय में स्त्री पुरुष संबंधों में आती जटिलताओं को भी दूर करने में मददगार साबित होगा."

कुल मिलाकर इस तरह के बदलाव और इससे पैदा होने वाले टकराव को सामाज के आगे बढ़ने की प्रक्रिया का ही हिस्सा माना जा सकता है. देखना है लिव इन रिलेशनशिप को खाप पंचायतों वाले भारतीय समाज में घुलने मिलने में कितना वक्त लगता है.

रिपोर्टः निर्मल यादव

संपादनः ए कुमार

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी

और रिपोर्टें देखें