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विकास की रेस में पहचान न खो बैठें

२७ दिसम्बर २०१४

तेज आर्थिक विकास की उम्मीदें न सिर्फ भारत के करोड़ों बेरोजगार युवाओं को है बल्कि पश्चिमी देशों को भी जो वहां बड़ा बाजार देख रहे हैं. विकास की इस रेस में कुछ ऐसी चीजें पीछे छूटती जा रही हैं जिनकी वजह से उसे जाना जाता है.

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तस्वीर: Reuters

भारत घूमने विदेशी बड़े चाव से आते हैं. बलात्कार और भ्रष्टाचार की खबरों से घिरे भारत के बारे में अगर वे तारीफ में कुछ कहते हैं तो यही कि भारत एक रोचक देश है. भारत को रोचक उसकी विविधता बनाती है. यह विविधता भारत में उसकी प्राचीन कलाओं, रीति रिवाजों और कारीगरी की देन है. लेकिन प्रगति की राह पर कारीगरों का दम घुट रहा है. इससे पारंपरिक हुनर पर तो खतरा है ही, साथ ही पुराने पेशों में लगे लोगों की बेरोजगारी का भी डर है.

कलाओं नहीं विविधता का गला घुट रहा है

भारत में कितनी ही ऐसी कलाएं हैं जो आधुनिकीकरण की आड़ में मारी जा रही है. वे शादियों में रंग जमाने वाले ब्रास बैंड हों, मिट्टी को भगवान का रूप देने वाले कारीगर हों, फिल्मी कहानियों को एक पोस्टर में समेट देने वाले पेंटर या मेले में लोगों का दिल जीत लेने वाले मोटरसाइकिल सवार. कहने को ये मामूली पेशे हैं, लेकिन असल में भारत के विभिन्न प्रांतों की अलग कलाएं और उन्हें अब तक जिंदा रखे कलाकार ही देश को विविधता के रंग देते हैं.

उनका पेशा और उनकी रोजी रोटी तेज तकनीकी विकास के दौर में दम तोड़ रही है. कहीं वे महंगे हो गए हैं तो कहीं उनकी इतनी कमाई नहीं हो रही है कि पुराने पेशे के सहारे जी सकें. लेकिन इस बात से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि कलाओं को जिंदा रखने की जिम्मेदारी समाज की है. उन्हीं से ही किसी देश किसी समाज की पहचान होती है. वे देश के इतिहास का आईना और भविष्य की नींव है.

राजस्थान को पंजाब से और पंजाब को बंगाल से अलग बनाने में स्थानीय कलाओं और कलाकारों का बहुत बड़ा योगदान है. जीवन के तकनीक से लैस हो जाने से सभी प्रांतों में घर में दीवाली में दिये की जगह बिजली से चलने वाली बत्तियां लगने लगीं. शादियों में बैंड की जगह डीजे के संगीत पर डांस होने लगा और हलवाई की बनाई सोंधी जलेबी की जगह आइसक्रीम ने ले ली है, लेकिन इस सब के बीच खास तरह की जलेबी का स्वाद जाता रहा है.

विकास अधूरा

भारत के बहुत बड़े वर्ग का पेट भरने का सहारा यही कलाएं हैं. इनके नष्ट होने का मतलब है उनका रोजगार खत्म होना. लेकिन शायद इनकी तरफ किसी का ध्यान नहीं जा रहा क्योंकि फिलहाल नजर दुनिया के साथ रेस पर है. इन कलाओं के मरने से कलाकारों के बच्चे दूसरे पेशे पकड़ने लगे हैं ताकि उन्हें भुखमरी और गुरबत का शिकार न होना पड़े. यह समझना जरूरी है कि असल विकास सामूहिक विकास में ही है.

पिछड़ेपन को दूर करने के प्रयासों के बीच पारंपरिक कलाओं को बचाने और उन्हें बढ़ावा देने पर भी ध्यान देने की जरूरत है. जो कलाएं भारत को दुनिया से अलग थलग पहचान दिलाती आई हैं उन्हें शर्मिंदगी के नाम पर पीछे छोड़ना खुद अपना ही नुकसान करना होगा. प्राचीन पेशों और हुनर को बचाना किसी भी विकासमान देश का कर्तव्य है. नहीं तो हमारी अगली पीढ़ी हमारी भूल को कोसेगी और पछताएगी.

ब्लॉग: समरा फातिमा