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विकास लक्ष्यों का कम होना अच्छा

क्रिस्टियान ऊलिष/एएम१६ नवम्बर २०१४

अर्थशास्त्री अभिजीत बैनर्जी विकास सहायता के बारे में नए सिरे से सोचना चाहते हैं. उनका मानना है कि गरीबी को खत्म करने का कोई नुस्खा नहीं है. जर्मन शहर कील में उन्हें बर्नार्ड हार्म्स पुरस्कार से सम्मानित किया गया है.

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तस्वीर: DW/Uhlig

दुनिया को समझने लिए उन्होंने अर्थव्यवस्था की पढ़ाई की. वह चाहते हैं कि मुश्किलों को समझने के लिए और तैयारी की जरूरत है ताकि जड़ पता चले और हर समस्या का हल अलग से निकाला जाए. सबका एक साथ नहीं. मैसेचुसेट्स के एमआईटी में उन्होंने पॉवर एक्शन लैब में विकास सहायता के कदमों के बारे में आंकड़े जमा किए हैं.

विकास सहायता का असर आंकड़ों में नहीं देखा जा सकता लेकिन बहुत साफ देखा जा सकता है कि किसी विशेष उपाय का असर क्या हुआ. जैसे कि किसी खास गांव के लिए बीजों पर सब्सिडी. कई साल उन्होंने गांवों या परिवारों को चुना और कंट्रोल ग्रुप्स बनाए.

मच्छरदानी

मौके पर हुए अनुभवों के कारण बैनर्जी के कई पूर्वाग्रह टूटे. ऐसी खबरें थी कि मलेरिया से बचने के लिए बांटी गई मच्छरदानियों का इस्तेमाल लोगों ने मछली का जाल बनाने के लिए कर लिया. इस तरह की खबरों से लोग हैरान थे. वहीं बैनर्जी कहते हैं, "आप इस मच्छरदानी में हर रात सो कर देखिए. इसमें हवा नहीं आती. और अगर कभी इसमें छेद हो जाए तो बाहर से ज्यादा मच्छर अंदर आ जाते हैं." बैनर्जी मच्छरदानियों के विरोधी नहीं हैं. लेकिन वह गरीब देशों में लोगों की मानसिकता को समझने की अपील करते हैं जिनके लिए टीका लगवाने जाना डेन्टिस्ट के पास जाने जितना ही भारी काम होता है.

उनके लिए दूसरा अहम मुद्दा माइक्रो क्रेडिट का है. इस तरह के कर्ज को जादुई माना जाता है क्योंकि वह गरीबों को उद्यमी बना सकता है. अपनी सहयोगी एस्थर डुफ्लो के साथ बैनर्जी ने जो शोध किए वह इस सोच के विपरीत हैं. जितने लोगों से उन्होंने पूछा कि अपने बच्चों के लिए वे कैसी नौकरी चाहते हैं, उनमें से 80 फीसदी लोगों ने सरकारी नौकरी की इच्छा जताई. बाकी 15 फीसदी लोग किसी निजी क्षेत्र में काम की पैरवी कर रहे थे. लेकिन खुद का काम करने के बारे में किसी ने नहीं कहा. हैरानी की बात यह थी कि जितने लोगों से सवाल किए गए उनमें से अधिकतर खुद किसी तरह के व्यवसाय में लगे थे. बैनर्जी बताते हैं, "वह शायद किसी और के लिए काम करना पसंद करते लेकिन उन्हें कोई नौकरी ही नहीं मिली. इसलिए वे किसी तरह का कर्ज लेने को तैयार ही नहीं थे."

लक्ष्य महत्वाकांक्षी

अभिजीत बैनर्जी संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों की उस टीम का हिस्सा थे जिन्होंने टिकाऊ विकास के नये लक्ष्य तय किए थे. ये लक्ष्य 2015 में सहस्राब्दी लक्ष्यों की जगह लेंगे. बैनर्जी कहते हैं कि प्रक्रिया भटक गई. हर देश, हर संगठन एक नया लक्ष्य जोड़ता चला गया. अब सामने 169 लक्ष्य और उनके अतंर्गत और छोटे लक्ष्य शामिल हैं. इन्हें कोई गिन ही नहीं सकता, पूरा करने की बात तो दूर है. वह कहते हैं, "हमें ये लक्ष्य कम करके 30 पर ले आने चाहिए नहीं तो इस सबका कोई मतलब नहीं रहेगा."

वह कहते हैं कि इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए कोफी अन्नान की तरह के किसी मजबूत व्यक्तित्व की जरूरत है. अन्नान ने तय किया कि सूची सुरक्षित की जाए. बैनर्जी कहते हैं, "कई लोग एकदम नई थ्योरी और कार्यक्रमों की मांग कर रहे हैं. लेकिन दुनिया अलग है. लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि हम चीजों का इस्तेमाल बेहतरी के लिए कर सकते हैं बशर्ते हम सामंजस्य के लिए तैयारी दिखाएं." और सबसे ज्यादा जरूरी है सुनना, कि लोगों को सच में किस चीज की जरूरत है.