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विषय पर भरोसा जरूरी: नागेश कुकनूर

२२ मार्च २०१४

जाने माने निर्देशक नागेश कुकनूर की पहचान लीक से हट कर फिल्में बनाने वाले फिल्मकार के तौर पर रही है. बाल वेश्यावृत्ति पर आधारित अपनी फिल्म 'लक्ष्मी' के सिलसिले में उन्होंने डॉयचे वेले से बातचीत की.

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Nagesh Kukunoor
तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari

डॉयचे वेले: आपकी ज्यादातर फिल्में आम जीवन से जुड़े मुद्दों और घटनाओँ पर आधारित रही हैं. क्या व्यावसायिक फिल्में बनाने की इच्छा नहीं होती?

नागेश कुकनूर: मेरे लिए कहानी ही सबसे जरूरी चीज है. जो बात असली जीवन की घटनाओं और मुद्दों के चित्रण में है, वह काल्पनिक कहानियों में कभी नहीं आ सकती. दरअसल, कुछ कहानियां ऐसी होती हैं जिनके लिए बड़े नामों की जरूरत नहीं रहती. इस लिहाज से देखें तो मेरी फिल्में व्यावसायिक नहीं होतीं. लेकिन यह सब कहानी की मांग पर निर्भर है. अब हर आदमी तो एक जैसी फिल्म नहीं बना सकता. किसी को कुछ अलग करना ही होगा. असली बात यह है कि फिल्म बनाते समय उसकी कहानी पर निर्देशक को भरोसा होना चाहिए. मैं अपने कामकाज से संतुष्ट हूं.

आपकी नई फिल्म लक्ष्मी की कहानी वेश्यावृत्ति जैसे संवेदनशील मुद्दे पर आधारित है. क्या मौजूदा दौर में ऐसी फिल्म बनाने का फैसला पूरी तरह सही था?

इस फिल्म की कहानी मेरे दिल के करीब है. पहले एक गैर सरकारी संगठन के साथ काम करते समय मैंने नाबालिग युवतियों की खरीद फरोख्त के कई मामले देखे हैं. इस दौरान कई दिल दहलाने वाली कहानियों से पाला पड़ा. उनमें से ही मैंने आंध्र प्रदेश की एक युवती की सच्ची कहानी को इस फिल्म का आधार बनाया. मुझे इस कहानी पर भरोसा था क्योंकि यह एक आंखो देखी घटना थी.

Monali Thakur
मोनाली ठाकुरतस्वीर: P. Tewari

लक्ष्मी के लिए हीरोइन का चयन कैसे किया?

गायिका से अभिनेत्री बनी मोनाली ठाकुर ने इस फिल्म में बेहतरीन अभिनय किया है. मैंने पहली बार उनको एक पार्टी में देखा था. उसी समय मैंने तय कर लिया था कि मोनाली को ही फिल्म में लेना है. वह 14 साल की एक युवती की भूमिका में पूरी तरह ढल सकती थीं. बाद में उन्होंने मेरे भरोसे को सही साबित किया.

आपकी पिछली फिल्म साल 2011 में आई थी. उसके बाद लक्ष्मी तक तीन साल का अंतराल क्यों?

किसी भी फिल्म की रिलीज बाजार की परिस्थितियों पर निर्भर है. इसलिए दो फिल्मों के बीच का फासला दो से तीन साल तक या उससे अधिक भी हो जाता है. इसकी भविष्यवाणी करना संभव नहीं है. लेकिन इस दौरान मैं चुप नहीं बैठा था. मैंने कई पटकथाएं लिखीं और दूसरी चीजों पर काम कर रहा था.

आपने जॉन अब्राहम, जूही चावला और अक्षय कुमार जैसे कई सितारों के साथ भी काम किया है. क्या व्यावसायिक तौर पर सफल अभिनेताओं को समानांतर सिनेमा में पेश करने पर कामयाबी की संभावना बढ़ जाती है?

इस बात की कोई गारंटी नहीं होती. पहले तो किसी अभिनेता या अभिनेत्री को समानांतर सिनेमा में काम करने का खतरा उठाना होगा. उसके बाद इसकी उम्मीद रखनी होगी कि दर्शक अभिनेता को उस भूमिका में स्वीकार कर लेंगे. मिसाल के तौर पर मान लेते हैं कि मैंने कुछ बड़े नामों को अपनी फिल्म में ले भी लिया, तो उसकी कामयाबी इसी बात पर निर्भर है कि दर्शक संबंधित अभिनेता को स्वीकार करते हैं या नहीं. लोग तो आखिर मनोरंजन के लिए फिल्में देखते हैं.

आपका अब तक का सफर कैसा रहा है?

बेहद संतोषजनक. फिल्म बनाना एक लंबे सफर के समान है. यह एक ऐसी लंबी लड़ाई है जिसे आपको अकेले लड़ना होता है. इसमें कामयाबी के लिए फिल्म के विषय पर पूरी तरह भरोसा होना जरूरी है. इसके अलावा इस बात का भी ख्याल रखना होगा कि दर्शकों तक पहुंचने में फिल्म को एक से डेढ़ साल तक का वक्त लगेगा. तब तक यह विषय प्रासंगिक रहेगा या नहीं.

इंटरव्यू: प्रभाकर, कोलकाता

संपादन: ईशा भाटिया