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वोट ना डालने वालों से नेता परेशान

Monika Guarino२५ जून २०१३

तीन महीने बाद जर्मन संसद के चुनाव होने वाले हैं और पर्यवेक्षकों की आशंका है कि इस चुनाव में मतदाताओं की भागीदारी रिकॉर्ड संख्या में कम होगी. एक दूसरे से स्वतंत्र दो सर्वे में यह बात सामने आई है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

फ्रीडरिष एबर्ट फाउंडेशन के ताजा सर्वे की सुर्खियां हैं, मतदान नहीं करने वाले हैं सबसे मजबूत राजनीतिक ताकत, मतदाता चले छुट्टियां बिताने और वोट न डालने वालों ने उठाए लोकतंत्र पर सवाल. ये सुर्खियां सितंबर में होने वाले संसदीय चुनावों पर बड़े सवाल खड़ी करती हैं. भविष्य पर शोध करने वाले हॉर्स्ट ओपाशोव्स्की का कहना है कि वोट न डालने वाले मतदाता 22 सितंबर के चुनाव में सबसे बड़ी ताकत होकर उभरेंगे.

1970 के दशक से वोट न डालने वालों की तादाद तिगुनी हो गई है. 1973 में 10 फीसदी लोगों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया था, तो 2009 में उनकी संख्या बढ़कर 30 प्रतिशत हो गई थी. अंतिम प्रांतीय चुनावों में यह संख्या और भी ज्यादा थी. हैम्बर्ग, ब्रेमेन, नॉर्थ राइन वेस्टफेलिया और मैक्लेनबुर्ग वेस्ट पोमेरेनिया में 40 प्रतिशत लोग वोट डालने नहीं गए. श्लेस्विष होल्श्टाइन में तो 50 प्रतिशत ने घर पर रहना पसंद किया.

राजनीतिज्ञों पर से भरोसा उठा

"जर्मनी में चुनाव से लोगों का मोहभंग होने में भारी तेजी आई है", यह कहना है ओपाशोव्स्की का. वे कहते हैं कि अधिकांश राजनीतिज्ञ इमानदार और भरोसेमंद नहीं हैं. इतना ही नहीं राजनीतिक दल लोगों के कल्याण से ज्यादा सत्ता बनाए रखने में और राजनीतिज्ञ राजनीतिक सामग्री से ज्यादा खुद के दिखावे में दिलचस्पी लेते हैं. ओपाशोव्स्की 14 साल से ज्यादा उम्र के 1000 लोगों के सर्वेक्षण के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं.

Deutschland Zukunftsforscher Horst W. Opaschowski
"जर्मनी में चुनाव से लोगों का मोहभंग होने में भारी तेजी आई है": हॉर्स्ट ओपाशोव्स्कीतस्वीर: picture-alliance/dpa

फ्रीडरिष एबर्ट फाउंडेशन एफईएस के सर्वे "जर्मनी में गैर मतदाता" के लिए 3,500 ऐसे वोटरों से सवाल पूछे गए जो वोट डालने नहीं जाते. उनका बहुमत अपने फैसले की वजह राजनीतिक हलचल से गहरे असंतोष को बताता है. एफईएस के सोशल रिसर्च के प्रमुख डीटमार मोल्टहागेन का कहना है कि दूसरे कारण कमतर भूमिका निभाते हैं, "यह इस मायने में अच्छी खबर है कि राजनीतिक पेशकश में बदलाव कर वोटरों को वापस जीता जा सकता है." मोल्टहागेन कहते हैं कि यदि राजनीतिज्ञ उनकी जरूरतों पर ध्यान दें तो बहुत से नागरिक फिर से वोट देने जाना चाहते हैं.

गरीबों का इंकार

ओपाशोव्स्की की शिकायत है, "राजनीतिज्ञ और नागरिक एक दूसरे से लगातार दूर हो रहे हैं. दोनों ही एकदम अलग संसार में रहते हैं." उनका कहना है कि बहुत से राजनीतिक दल जानबूझ कर अपनी किलेबंदी कर रहे हैं. लेकिन यह समझना गलत है कि खास तौर पर युवा लोग वोट देने नहीं जाते. मोल्टहागेन कहते हैं, "हम हर उम्र में गैर मतदाता पाते हैं, खासकर नियमित रूप से वोट न डालने वालों में बहुत से बुजुर्ग लोग हैं."

एफईएस के सर्वे का दिलचस्प नतीजा यह है कि वोट न डालने वाले बहुत से लोग निम्न सामाजिक वर्ग से आते हैं. मोल्टहागेन इसे चुनाव परिणामों की मुश्किलें बताते हैं, "यदि कोई खास वर्ग चुनाव में भाग नहीं लेता है तो स्वाभाविक रूप से उसके हितों का प्रतिनिधित्व भी कम होता है."

युवाओं पर शोध करने वाले क्लाउस हुरेलमन भी युवा मतदाताओं में इंकार के ट्रेंड की पुष्टि करते हैं. जिसके पास कम शिक्षा और धन है, वह अपने को समाज का हिस्सा नहीं समझता और सोचता है कि राजनीतिज्ञ उनकी व्यक्तिगत जिंदगी को बदल नहीं सकते. नतीजा यह होता है कि वे वोट देने नहीं जाते.

Klaus Hurrelmann
क्लाउस हुरेलमन भी युवा मतदाताओं में इंकार के ट्रेंड की पुष्टि करते हैं.तस्वीर: picture alliance/ZB

हुरेलमन का मानना है कि अधिक शिक्षा, राजनीतिक जानकारी और सभाएं स्थिति को बदलने में मदद कर सकती हैं. "जूनियर और 18 साल से कम उम्र के चुनावों में राजनीतिक पाठ्यक्रमों के साथ अच्छा अनुभव हुआ है." जूनियर चुनावों में 18 साल से कम उम्र के सभी बच्चे और किशोर, चाहे वे किसी राष्ट्रीयता के हों, वोट दे सकते हैं. इस साल भी संसदीय चुनावों से 9 दिन पहले यह चुनाव होगा.

समस्या का समाधान

शोधकर्ताओं का कहना है कि दूरगामी रूप से मतदान न करने वाले वोटरों की बढ़ती संख्या लोकतंत्र के लिए समस्या बन सकती है. एफईएस के डीटमार मोल्टहागेन समस्या सत्ता में बैठे राजनीतिज्ञों की लोकतांत्रिक वैधता में देखते हैं, "यदि सिर्फ हर दूसरा व्यक्ति वोट डालने जाएगा तो सिर्फ 13-14 प्रतिशत लोग किसी पार्टी को वोट देंगे." उनका कहना है कि चुनावों में कम भागीदारी कदम दर कदम लोकतंत्र को कमजोर बना देगा. इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि पॉपुलिस्ट पार्टियां निराश मतदाताओं को आकर्षित कर सकती हैं, "यदि आप दूसरे यूरोपीय देशों में देखें तो आंशिक रूप से ऐसा हो चुका है."

हुरेलमन और ओपाशोव्स्की इस हद तक नहीं जाना चाहते, "यह खतरा नहीं है. लोग बहुत जल्दबादी में फैसला लेने लगे हैं. वे पहले से तय नहीं करना चाहते." भविष्य में जनमत सर्वेक्षणों के जरिए लोगों को फैसले की प्रक्रिया के साथ ज्यादा जोड़ना होगा. लेकिन साथ ही ओपाशोव्स्की लोगों से और सक्रिय होने की मांग करते हैं. वे कहते हैं कि ब्राजील और तुर्की के उदाहरण बताते हैं कि लोगों की मांग है, "लोकतंत्र आज, कल नहीं."

रिपोर्ट: आर्ने लिष्टेनबर्ग/एमजे

संपादन: ईशा भाटिया

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