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सस्ता, साफ और खाद बनाने वाला टॉयलेट

११ दिसम्बर २०१३

दुनिया भर में हर साल लाखों लोग गंदे पानी के कारण जान गंवा देते हैं. शौचालयों का अभाव बड़ी समस्या है. जर्मनी में एक ऐसा टॉयलेट तैयार किया गया है, जो सस्ता भी है और इस समस्या का हल भी साबित हो सकता है.

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Klo der Zukunft
तस्वीर: DW

शौचालय, हिकारत की नजर से देखी जाने वाली ये चीज, इंसान को जिंदा रखने में बड़ी भूमिका निभाती है. लेकिन अक्सर कई देशों में शौचालयों और उनकी साफ सफाई को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता. सीवेज लाइन न हो तो शौचालय को खाली करना भी बड़ी समस्या बन जाता है. भारत में कुल मोबाइल फोन से कहीं कम टॉयलेट हैं. इसकी एक वजह पानी की कमी भी है. पानी के अभाव में टॉयलेट को साफ रखना मुश्किल हो जाता है.

लेकिन ऐसी कई मुश्किलों का एक सस्ता हल जर्मन वैज्ञानिक प्रोफेसर राल्फ ओटरपोल ने खोजा है. हैम्बर्ग यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ओटरपोल ने 100 यूरो यानि करीब 8,500 रुपये में एक ऐसा टॉयलेट सिस्टम तैयार किया है, जिसमें पानी भी कम लगता है, बदबू भी नहीं आती और इसी से बढ़िया जैविक खाद भी बन जाती है.

जानलेवा गंदगी

प्रोफेसर ओटरपोल के मुताबिक कई देशों की नदियों और तालाबों में पानी बीमारी और गंदगी के विषाणुओं से भरा रहता है. दुनिया भर में हर दिन 5,000 बच्चे, मल मूत्र से दूषित पानी की वजह से मारे जाते हैं. करोड़ों लोग बीमार पड़ते हैं. ओटरपोल इसका कारण भी बताते हैं, "ढंग के टॉयलेट सिस्टम की कमी सेहत के लिए बड़ी समस्या है. इससे डायरिया और हैजा फैलता है. अगर बच्चों को 20 या 25 बार दस्त हो जाएं तो ज्यादातर मामलों में उनकी मौत हो जाती है. ये डरावना है."

ओटरपोल का खास टॉयलेट सिस्टम पानी को गंदा होने से बचाता है. उनके बनाए टॉयलेट में इतनी जगह है कि एक परिवार पूरे एक हफ्ते तक इसे इस्तेमाल कर सकता है. इस दौरान इसमें मल मूत्र, पानी, टॉयलेट पेपर सब जमा होता रहेगा. फिर एक हफ्ते बाद इसे साफ किया जा सकता है. सफाई के दौरान भी जरूरी है कि पानी बेहद कम इस्तेमाल किया जाए. इसमें एक जेट भी है. इससे बहुत कम पानी खर्च कर टॉयलेट साफ किया जा सकता है, शौच के लिए भी इसी का इस्तेमाल होता. साथ ही इस टॉयलेट पर दोनों तरीकों से बैठा जा सकता है. यानि इंडियन और वेस्टर्न का कोई चक्कर नहीं. यूरोप और अमेरिका में जहां इंग्लिश टॉयलेट का इस्तेमाल किया जाता है, वहीं भारत समेत एशिया के कई देशों में आम तौर पर सीटिंग टॉयलेट को तरजीह दी जाती रही है.

Ralf Otterpohl
प्रोफेसर राल्फ ओटरपोल के बनाए इस टॉयलेट पर दोनों तरीकों से बैठा जा सकता है.तस्वीर: DW

असल बात टॉयलेट का बायो सिस्टम है. इस्तेमाल के बाद इसमें चीनी और लैक्टिक ऐसिड का मिश्रण डाल दिया जाए तो अगले फ्लश तक इससे बदबू भी नहीं आती. प्रोफेसर ओटरपोल कहते हैं, "यहां लोकल फरमेंटेशन हो रहा है. इससे बैक्टीरिया भी मर जाएंगे और साथ ही बदबू से भी बचा जा सकेगा."

शौचालय से खाद तक

वैज्ञानिक इस बात का पता लगा रहे हैं कि लैक्टिक एसिड में कितनी चीनी डालने से बैक्टीरिया का विकास होगा. पीएच वैल्यू जितनी कम होगी एसिड उतना ही तेज होगा. इसके बाद टॉयलेट की गंदगी को एक कंपोस्ट में पहुंचाया जाता है. यहां मल मूत्र में कोयले और लकड़ी के टुकड़े मिलाए जाते हैं, फिर मिश्रण को सुखाया जाता है. इस तरह कुछ ही हफ्तों बाद तैयार होती है काले रंग की टेरा प्रेटा कंपोस्ट खाद. ये मिट्टी के लिए बेहद ऊपजाऊ होती है.

चारकोल का इसमें मिला होना इस मिश्रण की खास बात है. ये मिट्टी में रहने वाले अतिसूक्ष्म जीवों को पोषण मुहैया कराता है, इस पोषण के सहारे वो ज्यादा पानी बचा सकते हैं. प्रोफेसर ओटरपोल के मुताबिक, "हम टेरा प्रेट्रा कंपोस्ट के साथ ऐसी मिट्टी तैयार कर सकते हैं जिसमें ज्यादा नमी होगी. नमी लंबे वक्त तक रहेगी और स्थानीय मौसम को संतुलित भी करेगी. अगर इसे दुनिया भर में बड़े पैमाने पर किया जाए तो जलवायु परिवर्तन को सकारात्मक ढंग से प्रभावित किया जा सकता है."

चारकोल अफ्रीका और एशिया से मंगवाया जा सकता है. वहां करोड़ों लकड़ी के चूल्हे हैं, जिनसे राख जमा की जा सकती है और काम में लाई जा सकती है. इस कंपोस्ट टायलेट के लिए यह आदर्श कच्चा माल होगा. शौचालय से बनी कंपोस्ट खाद का इस्तेमाल दुनिया भर में जंगलों को दोबारा बसाने के लिए किया जा सकता है. हरी भरी धरती के लिए यह एक बढ़िया योजना है.

रिपोर्ट: मार्टिन रीबे/ओएसजे

संपादन: ईशा भाटिया

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