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सस्ते तेल का फंदा

हेनरिक बोएमे२ जनवरी २०१५

शायद ही कभी तेल की कीमत पर इतनी बहस हुई है जितनी पिछले दिनों हुई. लेकिन जिस तरह से कीमतें गिरीं इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए. डॉयचे वेले के इकॉनॉमिक एडिटर हेनरिक बोएमे का कहना है कि 2015 और उथल पुथल ला सकता है.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

जहां कहीं भी तेल की खपत होती है, हफ्तों से खुशी का माहौल है. टैंक फुल कराने के लिए एक साल पहले के मुकाबले बहुत कम पैसा देना पड़ रहा है. और जिसने हीटिंग के लिए अभी टंकी भराई है उसे भी पिछले साल के मुकाबले कम खर्च करना पड़ा है. विशेषज्ञों का कहना है कि जर्मनी में ही कार मालिकों ने पेट्रोल पर 2013 के मुकाबले 5 अरब यूरो की बचत की है. यह पैसा किसी और मद पर खर्च किया गया है जिसका लाभ घरेलू व्यवसाय को मिला है. आर्थिक विकास पर इसका अच्छा असर हुआ है. निर्यातकों को भी यूरो की कीमत गिरने का लाभ मिला है. उनका माल सस्ता हुआ है.

इन सबकी वजह से आर्थिक गुरुओं ने इस साल के लिए आर्थिक विकास की दर में ऊपर की ओर संशोधन किया है. तो क्या जर्मनी और यूरोप की अर्थव्यवस्था 2015 में बेहतर होगी? यदि तेल की कीमतें नीचे बनी रहीं तो शायद नहीं. विश्व भर में बाजार बेचैन है. शेयर बाजार में पिछले हफ्तों भारी उतार चढ़ाव इसकी निशानी है. यदि कीमतें और गिरती हैं तो यूरो जोन कीमतों के कम होने यानि अपस्फीति का शिकार हो सकता है. लगातार कम होती कीमतों की उम्मीद में लोग बड़ी खरीदारियां टालने लगते हैं और कंपनियां अपना निवेश धीमा कर देती हैं. मांग में कमी की वजह से कीमतें और गिरने लगती हैं जिसका नतीजा लंबे अवरोध के रूप में सामने आता है. जापान इसका चेतावनी देता उदाहरण है.

खतरे का एक और स्रोत तेल उत्पादक देश हैं. वहां भी भारी उथल पुथल का खतरा है, मसलन वेनेजुएला और रूस में जो तेल की आमदनी पर दूसरों से ज्यादा निर्भर हैं. जहां तक रूस का सवाल है तो पश्चिमी प्रतिबंधों और तेल की कीमतों के गिरने के गंभीर नतीजे सामने आए हैं. राष्ट्रीय मुद्राओं की दर तेजी से गिरी है, पूंजी का पलायन हो रहा है और निवेशकों ने देश की अर्थव्यवस्था में भरोसा खो दिया है. यह समझना कि पुतिन के साम्राज्य के दिवालिया होने का पश्चिम पर असर नहीं होगा, भूल है. स्थिति 1990 के दशक में विकासशील देशों के संकट की याद दिलाती है. उस समय आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक ने रूप की अरबों डॉलर से मदद की थी. इस समय यह राजनीतिक तौर पर संभव नहीं दिखता.

यदि रूस दिवालिया हो जाता है तो आर्थिक पंडितों को विकास दरों की कुंडली फिर से लिखनी होगी. अमेरिका में भी, जो स्वयं तेल उत्पादक है और फ्रैकिंग की शुरुआत के बाद अहम उत्पादक और एक तरह से बाजार में तेल के भारी मात्रा में उपलब्ध कराने और उसके कीमत गिराने के लिए जिम्मेदार भी. यहां भी एक खतरा है. फ्रैकिंग उद्योग ने अपनी महंगी तकनीकी के लिए भारी ब्याज वाले बॉन्ड बेचकर धन जुटाया है. लेकिन एक सीमा है जिसके बाद फ्रैकिंग फायदेमंद नहीं रहेगी. उसके बाद यदि कंपनियां दिवालिया होने लगेंगी और बॉन्ड का ब्याज चुकाने की हालत में नहीं रहेंगी तो 2008 जैसा वित्तीय संकट पैदा हो सकता है.

एक और बात. तेल की कम कीमत फिलहाल जितनी भी अच्छी लगे, यह कोई अच्छा संकेत नहीं है कि गाड़ियों में बहुत ज्यादा तेल पीने वाली एसयूवी की मांग तेजी से बढ़ रही है. हम भूल रहे हैं कि खनिज तेल सीमित और घटने वाला कच्चा माल है. यह हमारा ध्यान आधुनिक तकनीकी और ऊर्जा के नए तरीकों के विकास से हटा रहा है. एक ही उम्मीद है कि तेल की कीमत पर नए साल में काबू पाया जाएगा और वह निचला पायदान छोड़ेगा. यदि ऐसा नहीं होता है, तो 2014 के अशांत आखिरी हफ्ते हमें 2015 के उथल पुथल की शुरुआत के रूप में याद रहेंगे.