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'सामयिक हैं' कार्ल मार्क्स

१४ मार्च २०१३

कार्ल्स मार्क्स के विचारों का असर इतना गहरा था कि दुनिया की व्यवस्थाएं बदल दी गई, हालांकि वह तानाशाही के कारण स्थाई नहीं हो सकीं. 130 साल पहले आज ही दिन मार्क्स की मौत हुई थी.

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तस्वीर: picture-alliance / akg-images

मार्क्स और एंगेल्स का लिखा कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो 1789 की मानव और नागरिक अधिकारों की घोषणा और अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा के साथ दुनिया के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक लेखों में शामिल है. जर्मन दर्शनशास्त्री हंस योआखिम श्टोएरिष कहते हैं, "पहले कभी दर्शन से बने और उस पर आधारित आंदोलन ने ऐसी ताकत नहीं दिखाई." 20वीं सदी के दूसरे हिस्से में दुनिया की आधी आबादी ऐसे देशों में रहती थीं जिनकी सरकारों का वैचारिक आधार मार्क्सवाद था.

इसके साथ मार्क्स ने अपना खुद का वायदा पूरा किया. युवा मार्क्स ने कहा था, "विचारकों ने दुनिया की अलग अलग व्याख्या की है, असल काम उसे बदलना है."

मार्क्स का सिद्धांत

मार्क्स चाहते थे कि उन्हें हमेशा समाजशास्त्री के तौर पर देखा जाए न कि दार्शनिक के तौर पर. उनके सिद्धांतों के केंद्र में काम का विश्लेषण था. मार्क्स से संबंधित एक पत्रिका के प्रकाशक जीगफ्रीड लंड्सहूट और जेपी मायर कहते हैं, "इंसान ऐसा जानवर है जो खुद को बनाता है." श्रम के विश्लेषण के लिए आर्थिक पहलुओं को समझना जरूरी था. यह ज्ञान मार्क्स को उनके दोस्त और सहयोगी फ्रीडरिष एंगेल्स ने दिया.

मार्क्स ने उसके बाद मूल्य का सिद्धांत दिया. उसके अनुसार इंसान उससे ज्यादा मूल्य पैदा कर सकता है जितना उसके अपने जीवनयापन के लिए जरूरी है. इन दोनों के बीच अंतर को पूंजीपति इस तरह से हथिया लेता है कि वह कामगारों से जितना काम करवाता है उससे कम मेहनताना देता है. इस तरह से मुनाफा पैदा होता है.

Karl Marx
जर्मन दर्शनशास्त्री और समाजशास्त्री कार्ल मार्क्सतस्वीर: picture-alliance /dpa

मार्क्स का सिद्धांत इस सोच पर आधारित है कि भौतिक आधार सामाजिक जीवन को प्रभावित करते हैं. "अस्तित्व चेतना को प्रभावित करता है." हम जिस तरह से जीते हैं और काम करते हैं, वह हमारी सोच को महसूस करने के तरीके को प्रभावित करता है. इसके अलावा मार्क्स का मानना था कि इतिहास भी उन्हीं कानूनों पर चलता है जिस पर प्रकृति चलती है. इसलिए वे इस नतीजे पर पहुंचे कि बुर्जुआ पूंजीवादी समाज ठीक उसी तरह अपने विरोधाभासों की भेंट चढ़ जाएगा जिस तरह पत्थर जमीन पर गिरता है.

असर और परिणाम

मार्क्स के विचार अर्थव्यवस्था के चक्र की ही तरह पिछले 100 सालों में उतार और चढ़ाव का शिकार रहे हैं. शीतयुद्ध के दौरान व्यवस्थाओं की टक्कर पर उनके सिद्धांतों का साया रहा. रूस में लेनिन और उनके उत्तराधिकारी स्टालिन ने साम्यवाद को ऐतिहासिक भौतिकवाद के रूप में विचारधारा बना दिया और उसे राजनीतिक हकीकत में बदल दिया.

माओ ने चीन में, हो ची मिन्ह ने वियतनाम में किम इल सुंग ने उत्तर कोरिया में और फिडेल कास्त्रो ने क्यूबा में अपने शासन के लिए ट्रियर शहर में पैदा हुए जर्मन विचारक का सहारा लिया. वे सब इस बात पर सहमत थे कि मार्क्स ने वैश्विक सच पा लिया है. लेकिन वे मार्क्स के सिद्धांतों को अपनी जरूरतों के हिसाब से बदलने से बाज नहीं आए. नोबेल पुरस्कार विजेता अल्बेयर कामू ने 1956 में अकारण ही नहीं लिखा था, "मार्क्स के साथ हमने जो अन्याय किया है उसे कभी ठीक नहीं कर पाएंगे."

ईस्ट ब्लॉक का विघटन

कम्युनिस्ट देश कुछ ही सालों में बर्बर तानाशाहियों में बदल गए जिनमें लाखों लोगों की जान गई, जैसे कि रूस और चीन में. औद्योगिक देशों में अपरिहार्य क्रांति की मार्क्स की भविष्यवाणी हकीकत नहीं बनी. इसके विपरीत साम्यवाद का अगुआ होने का दावा करने वाली रूसी व्यवस्था पूंजीवादी पश्चिम के साथ टकराव में बिखर गई.

मार्क्स के दूसरे सिद्धांत या तो गलत या कम से कम एकतरफा साबित हुए. उदारवादी विचारक कार्ल पॉपर ने दिखाया कि मार्क्स के सिद्धांत अपने दावे के विपरीत विज्ञान की कसौटी पर खरे नहीं उतरे. उनका मानना है कि कानून, संस्कृति और कला को आर्थिक आधार का बाहरी ढांचा बताना उचित नहीं है.

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चीन की कम्युनिस्ट पार्टीतस्वीर: ap

सोवियत संघ के विघटन के बाद मार्क्स के विचारों को इतिहास की भूल बताना आसान था. ऐसा लगा कि पश्चिम के उदारवादी लोकतंत्रों ने अपनी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ 20 सदी के दूसरे हिस्से में व्यवस्था की लड़ाई जीत ली है.

वैश्विक वित्त संकट

लेकिन ऐसा नहीं था, यह आखिरकार 2007 के वैश्विक वित्तीय संकट ने दिखा दिया. लाखों लोगों ने इसकी वजह से अपनी नौकरियां और घर खो दिए. और मार्क्स फिर से चर्चा में हैं. मार्क्स ने वैश्वीकरण को पूंजीवाद का नतीजा बताया था. उन्होंने पूंजीवादी समाज के अंदरूनी विरोधाभासों का भी वर्णन किया था जो उनके विचार से नियमित संकट पैदा करेंगे. मार्क्स ने कम हाथों में ज्यादा से ज्यादा पूंजी के जमा होने की भी भविष्यवाणी की थी. अर्थशास्त्री वैर्नर क्रेमर इसे "मौजूदा आर्थिक संकट में पहले से कहीं सामयिक " मानते हैं.

चीन के तेज विकास ने बहुत से पर्यवेक्षकों को हैरान कर दिया है. क्या साम्यवाद अभी भी काम कर रहा है? लेकिन आज जिसे चीन में या क्यूबा, वियतनाम और वेनेजुएला में साम्यवाद बताया जा रहा है, उसका मार्क्स के शुरुआती सिद्धांतों से कोई लेना देना नहीं है.

अंदर की ओर संकेंद्रन और उसके साथ जुड़े चीन जैसे राष्ट्रवाद के मार्क्स पक्षधर नहीं थे. उन्होंने आजादी को हमेशा अंतरराष्ट्रीय कामगार वर्ग के हाथों देखा था. कुछ साल तक चीन में पढ़ाने वाले प्रो. क्रैमर कहते हैं कि चीन भी "अपेक्षाकृत अन्यायपूर्ण समाज है. अमीरों और गरीबों के बीच भारी अंतर है." यह इस बात का संकेत है कि चीन में मार्क्सवाद और मौजूदा आर्थिक व्यवस्था में भारी विरोधाभास है.

रिपोर्ट: रोडियॉन एबिगहाउजेन/एमजे

संपादन: आभा मोंढे

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