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सोलिंगेनः 20 साल बाद

२८ मई २०१३

बीस साल पहले जर्मन शहर सोलिंगेन में नस्लवादी आगजनी में पांच लोग मारे गए. 28 मई की रात चार युवकों ने तुर्क मूल के गेंच परिवार के घर में आग लगा दी, पांच लड़कियां और औरतें आग की भेंट चढ़ गईं.

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तस्वीर: F. Vincentz

भारी तकलीफ और पीड़ा के बावजूद गेंच परिवार अभी भी सोलिंगेन में ही रहता है. जर्मनी को बदल कर रख देने वाली इस घटना के 20 साल बाद डुरमुस गेंच और उनके परिवारवालों के चेहरे पर अभी भी तकलीफ के निशान दिखते हैं. डुरमुस, उनकी पत्नी मेवलूडे और बेटा कामिल जब घर से बाहर निकलते हैं तो कैमरे और माइक्रेफोन तैयार मिलते हैं. मीडिया से बड़ी दूरी पर तीनों चुपचाप खड़े हैं, डुरमुस गेंच और उनकी पत्नी एक दूसरे से सटकर, बेटा थोड़ा अलग.

चेहरे पर पीड़ा साफ झलक रही है, फिर भी तीनों वहां खड़े रहते हैं, सम्मान के साथ. दोनों मर्दों ने सूट पहन रखा है, जबकि मेवलूडे ने भूरे रंग का कॉस्ट्यूम और मिलता जुलता स्कार्फ, हाथ में चलने वाली बेंत. उम्र उनके चेहरे पर नहीं दिखती. मेवलूडे 70 साल की नहीं दिखतीं, जिसने पांच प्रियजनों को आग में खो दिया हो. सिर्फ उनकी बेंत दिखाती है कि उन्हें सहारे की जरूरत है. उन्होंने दर्द के साथ जीना सीख लिया है.

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गेंच परिवारतस्वीर: DW/K. Jäger

तकलीफ की जिंदगी

सोलिंगेन की आगजनी को 20 साल बीत गए हैं, जिसमें मेवलूडे के पांच रिश्तेदारों की तकलीफदेह जान गई. उनकी नातियां, चार साल की हूल्या और नौ साल की साइम, 12 साल की भतीजी गुलुस्तान और बेटियां, 18 वर्षीया हेटिस, और 27 वर्षीया गुरसुन. उस समय 15 साल के बकीर ने खिड़की से कूद कर जान बचाई, लेकिन वह गंभीर रूप से घायल हो गया. मेवलूडे का बेटा 22 दिन तक कोमा में रहा, उसके कई ऑपरेशन हुए. आज भी उसके शरीर पर आग और घाव के निशान दिखते हैं.

हमले के पहले 26 मई 1993 को जर्मन संसद ने जर्मनी में शरणार्थियों की संख्या को कम करने के लिए संविधान में संशोधन किया था. एकीकरण के ढाई साल बाद उन दिनों जर्मनी में विदेशियों के आने पर गहन बहस हो रही थी. लेकिन मेवलूडे 20 साल से जर्मनी में रह रही थी. पति को सोलिंगेन में काम मिलने के बाद वह जर्मनी आई थी. फिर उन्होंने एक पुराना घर खरीद लिया और तुर्की के बच्चों को भी ले आए जो तब तक दादा के साथ रहते हैं. मेवलूडे सफाई करने जाती थी और परिवार की आय में योगदान देती थी. कहती हैं कि आगजनी तक उन्हें कोई बुरा अनुभव नहीं हुआ था.

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विदेशियों का विरोधतस्वीर: Heinz Siering/1992

महीने में एक बार मेवलूडे उस जगह जाती है जहां उनके बच्चे आग में जल मरे थे, जैसे वे कब्रगाह जा रही हों. पांच पेड़ और एक स्मृति पट्टिका उस घटना की याद दिलाते हैं. अब गेंच परिवार शहर के भीड़ भरे इलाके में रहता है. उनका घर लोहे के बाड़े से घिरा है, बाहर की निगरानी के लिए वीडियो कैमरे लगे हैं और खिड़कियां ऐसी कि आग लगने पर अपने आप खुल जाएंगी. बीमा कंपनी और मदद में मिले धन से उन्होंने यह घर बनवाया है. अपराधियों से उन्हें कुछ नहीं मिला. उन पर आरोप लगता है कि वे आरामदेह कोठियों में रहते हैं, लेकिन मेवलूडे इससे इनकार करती हैं और कहती हैं कि वे आराम को महत्व नहीं देतीं. उनके लिए जरूरी है कि लोग उन्हें आदर और बराबरी का दर्जा दें.

मेल मिलाप की अपील

मेवलूडे कहती हैं कि उनका धर्म उन्हें शक्ति देता है, सबसे जरूरी है एक दूसरे के साथ शांति में जीना. यह बात उन्होंने मस्जिद में सीखी है और यह भी कि सभी इंसान बराबर हैं, चाहे वे कहीं के भी हों, किसी भी धर्म के हों. वे कहती हैं कि जर्मनी में नियम कानून हैं, उन्हें न्याय पर पूरा भरोसा है. अपराधियों को उनके किए की सजा मिल गई है, बाकी अल्लाह के हाथों है.

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नस्लवाद का विरोधतस्वीर: picture-alliance/dpa

सारी बातचीत मेवलूडे करती हैं, उनका पति और बेटा साथ में बैठे हैं. वे पड़ोसियों से अपील करती हैं कि अच्छे रिश्ते बनाए रखें, क्योंकि वही उनकी जिंदगी को सीधे प्रभावित करते हैं. लेकिन कुछ तकलीफ अभी भी बाकी है. मेवलूडे अभी भी जर्मन नहीं बोलतीं. वह ऐसे समय में आई थीं जब जर्मन भाषा उतनी जरूरी नहीं थी और जर्मन अधिकारी समझते थे कि गेस्ट वर्कर कभी न कभी अपने देश लौट जाएंगे.

70 वर्षीया मेवलूडे इशारों से बात करती हैं और अपनी बात समझाने के लिए या अनुवाद करने के लिए तीसरी पीढ़ी का सहारा लेती हैं. बच्चे जर्मन बच्चों के साथ बड़े हो रहे हैं. मेवलूडे को सोलिंगेन शहर के प्रेस प्रवक्ता लुत्स पेटर्स का सहारा भी मिल रहा है, जिन्होंने यह भेंट आयोजित की. वे बताते हैं कि शहर में आगजनी की 20वीं सालगिरह पर टी-शर्ट बनवाए हैं जिन पर लिखा है, "आओ हम दोस्त बनें." पोते पोतियों की बात करते हुए मेलूडे के चेहरे पर चमक आ जाती है. वे सोलिंगेन में रहते हैं, इसीलिए शहर उन्हें अपना लगता है.

सोलिंगेन की घटना से पहले भी जर्मनी में नस्लवादी हिंसा की घटनाएं हुई थीं. सितंबर 1991 में होयर्सवैर्डा में, अगस्त 1992 में रॉस्टॉक में और नवम्बर 1992 में मौएल्न में हुए हमले में तुर्क परिवार की दो महिलाएं और एक लड़की मारे गए थे. उसके बाद गेंच का घर आग की लपटों में था. कुछ ही दिनों बाद चार संदिग्ध अपराधियों को पकड़ा गया जो 16 से 23 की उम्र के थे. पड़ोस में रहने वाले ये युवक विदेशियों से घृणा करते थे. उन्हें 10 से 15 साल कैद की सजा मिली. उनमें से दो को अच्छे बर्ताव के कारण समय से पहले रिहा कर दिया गया.

रिपोर्ट: कारीन येगर/एमजे

संपादन: ए जमाल

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