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स्कूली खाने में बदइंतजामी का जहर

१७ जुलाई २०१३

सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या बढ़े इसके लिए दोपहर में उन्हें खाना खिलाना शुरू किया गया, यही भोजन खा कर बच्चों की जान चली गई तो सवाल उठ रहे हैं कि यह महज एक हादसा है या फिर स्कूलों में इंतजाम ही नहीं.

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तस्वीर: picture alliance/AP Photo

आर्थिक जानकार और सरकार की नीतियों पर बारीकी से नजर रखने वाले कमल नयन काबरा बिहार में छपरा जिले के स्कूल में दोपहर का भोजन खाकर हुई बच्चों की मौत को हादसा मानने से इनकार करते हैं, "तकनीकी रूप से अगर कोई काम जान बूझ कर न किया जाए तो उसे हादसा कहते हैं लेकिन जब योजना ही ऐसी बनी है कि इस तरह की घटना का होना स्वाभाविक है तो उसे हादसा कैसे कहेंगे?" डीडब्ल्यू से बातचीत में काबरा ने कहा, "इतनी बड़ी संख्या में बच्चों को खाना खिलाना वो भी ऐसे देश में जहां मिलावटी सामान का बोलबाला है, रक्षा से लेकर हर क्षेत्र में नीतियों को लागू करने में अनियमितता है, काम कागज पर ज्यादा और असल में कम है, वहां ऐसी योजना कैसे सफल हो सकती है."

Indien Schule in Chhapra 16.07.2013
तस्वीर: picture alliance/landov

स्कूल के प्रिंसिपल पर जिम्मेदारी है सरकारी गोदाम से अनाज निकलवाना और फिर उसे स्कूल में रखवाना. चावल तो सरकारी है, बाकी सब्जी, तेल और मसाले बाजार से खरीदे जाते हैं इसके लिए प्रिंसिपल खुद या स्कूल के ही किसी शिक्षक के साथ बाजार जाते हैं. यहां सवाल ये भी है जिस स्कूल में मात्र एक शिक्षक है वो पढ़ाए या खरीदारी के लिए बाजार ही घूमता रहे. अमूमन 100 छात्रों पर एक रसोइये की नियुक्ति की गई है. इन रसोइयों पर खाने की तैयारी से लेकर खाना बनाने और खाना खिलाने तक की पूरी जिम्मेदारी है. लंबे समय तक खाना खुले में ही बनता रहा लेकिन अब इसके लिए स्कूलों में रसोईघर बनाए जा रहे हैं. इस इंतजाम के दम पर सरकार ने देश भर के 10 लाख से ज्यादा स्कूलों के करोड़ों छात्रों को हर रोज दोपहर का भोजन कराने की योजना चलाई है.

खाने में क्या और कैसे बनेगा इसके लिए मशहूर होटल ओबेरॉय के मुख्य रसोइए ने मेन्यू और रेसिपी तैयार की है. स्कूलों में तैनात रसोइयों को इसके लिए प्रशिक्षण दिया गया है, अनाज के अलावा बाकी चीजों की खरीदारी के लिए पैसा समय से आ जाता है, केंद्र से लेकर राज्य, जिला और यहां तक कि गांव के स्तर पर भी निगरानी के लिए तंत्र खड़ा किया गया है जो समय समय पर खाने और कार्यक्रम की जांच करते रहते हैं.

Modernes Indien, Kinder Mangelernährung
तस्वीर: Noah Seelam/AFP/Getty Images

इसके बावजूद आए दिन देश के अलग अलग हिस्सों से कभी खाने में छिपकली, कभी चूहा तो कभी मेढक मिलने की घटनाएं सामने आती हैं. कॉकरोच और कीड़ों की तो चर्चा ही नहीं होती. पर इतना जरूर था कि बात डायरिया, पेट दर्द जैसी शिकायतों तक ही सिमट जाती थी, इस बार बच्चों की मौत भी हुई है. वो भी एक, दो नहीं 20 से ज्यादा.

छपरा के पड़ोसी जिले गोपालगंज में मध्य विद्यालय के सहायक शिक्षक और इलाके के स्कूलों की समन्वय समिति के संयोजक रह चुके भुवनेश्वर शुक्ला बताते हैं, "रसोइयों को 1000 रुपये का वेतन मिलता है, उनकी पढ़ाई नाम मात्र की है, 320 छात्रों के लिए 3 रसोइए हैं, उन्हें हर रोज 6-8 घंटे काम करना पड़ता है, उनके पास काम बहुत है." खाना बनाना केवल बर्तन में करछी चलाना नहीं होता. इसके लिए सब्जी काटने से लेकर, अनाज साफ करने, इन सबको धोने और फिर बन कर तैयार हो जाने के बाद परोसने तक की प्रक्रिया में पूरी सावधानी रखनी होती है. ऐसे में एक मामूली चूक सारा खेल बिगाड़ सकती है.

अर्थशास्त्री काबरा का कहना है कि अगर ऐसी योजना चलानी है तो फिर बेहतर होगा कि कच्चा सामान बच्चों को दिया जाए और उनके मां-बाप उन्हें पका कर खिलाएं. योजना की शुरुआत में बहुत से स्कूलों ने यही किया. तब खाना बनाने का इंतजाम न होने के कारण बच्चों को अनाज ही दिया जाता था लेकिन तब शिकायतें आईं कि मां बाप उस अनाज को बेच देते हैं और बच्चे भूखे रह जाते हैं. हालांकि इस दलील को काबरा उचित नहीं मानते, "ऐसा कितने बच्चों के साथ हुआ, अगर कोई मां बाप बच्चे को भूखा स्कूल भेज रहा है कि खाना वहां मिलेगा तो फिर ऐसे लोग तो अपने बच्चों को पढ़ाने की बजाए सीधे काम पर भेज देंगे. एक दो मां बाप ऐसा कर सकते हैं सभी नहीं."

देखने में आया है कि प्राइमरी स्कूलों में पढ़ाई से ज्यादा प्राथमिकता दोपहर के खाने को दी जा रही है. सरकार को बताना चाहिए कि देश का कौन सा ऐसा प्राइवेट स्कूल है जो इसी तरह मुफ्त में खाना खिलाता है. यह बात किसी से छुपी नहीं कि सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या लगातार गिरती जा रही है. शिक्षक और छात्रों के अलावा वहां बदइंतजामी ही ज्यादा दिखती है. फटी चटाई, घिसा हुआ ब्लैक बोर्ड, बरसात में टपकने वाली छत और कक्षा एक से लेकर पांचवीं तक सभी को एक साथ हर विषय पढ़ाने वाले अध्यापक. इन हालातों के बीच हर दिन दो- तीन घंटे के भीतर चावल बीनकर, दाल धोकर, सब्जी धोकर और ढंग से काटकर और फिर साफ सुथरी प्लेटों में परोसना. इसके बाद सारे बर्तन धोना, उन्हें सुखाना, किचन की सफाई करना. सरकार खुद देख ले कि अकेला आदमी 1000 रुपये में महीने भर यह कर सकता है या नहीं.

रिपोर्टः निखिल रंजन

संपादनः अनवर जे अशरफ