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हक मांगती बांग्लादेशी लड़कियां

१ सितम्बर २०१४

पांच साल पहले तक शीमा अख्तर सामान्य जिंदगी जी रही थी कि एक दिन अचानक उनके पिता ने फैसला किया कि अब बेटी को एक बुजुर्ग मर्द के साथ ब्याह देना चाहिए.

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तस्वीर: Getty Images/Afp/Munir uz ZAMAN

16 साल की हो चुकी शीमा कहती है कि जब वह 11 साल की थी तो उसके पिता ने स्कूल की पढ़ाई छुड़ा दी. वह आगे बताती है कि उसके पिता ने एक बूढ़े शख्स से उसकी शादी की योजना बनानी शुरू कर दी. शीमा कहती है कि उसके पिता खुद कहते थे कि यह उसकी सुरक्षा के लिए अहम है. कट्टर मुस्लिम परिवार में पैदा हुई शर्मिली सी शीमा इसे मान लेती अगर उसे युवाओं के हक की बात करने वाले समूह का समर्थन नहीं मिलता. किशोरी अभिजन यूनिसेफ का ब्रेन चाइल्ड है. इस प्रोजेक्ट के तहत नौजवानों को कई मुद्दों पर शिक्षित किया जाता है, जिनमें लिंग भूमिका, लिंग भेदभाव, कम उम्र में शादी, प्रजनन, स्वास्थ्य, निजी स्वच्छता और बाल मजदूरी रोकने जैसे मुद्दे हैं.

अब शीमा को अपने अधिकार पता हैं, शीमा अपने अधिकारों को पाने के लिए मेहनत के साथ लड़ाई लड़ रही है. अन्य महिलाओं के साथ मिलकर 16 करोड़ आबादी वाले इस देश में शीमा लिंग भेदभाव के बारे में पारंपरिक विचार को बदलने की कोशिश कर रही हैं.

किशोरियों के सशक्तिकरण के अलावा जमीनी स्तर पर चल रही अन्य योजनाओं के तहत समुदाय को महिला अधिकारों के बारे में बताया जा रहा है. इसमें ऐसे समूह भी शामिल हैं जो इंटरएक्टिव थिएटर का सहारा लेते हैं. नाटकों में स्थानीय समस्या को स्थानीय स्तर पर संबोधित करने की कोशिश की जाती है. लोकप्रिय लोक कथाओं, पारंपरिक गीतों और नृत्यों का इस्तेमाल करते हुए कलाकार अभिभावकों, स्थानीय अधिकारियों और समुदाय के प्रभावशाली सदस्यों के सामने संवेदनशील मुद्दों को रखते हैं. एनजीओ द सेंटर फॉर मास एजुकेशन इन साइंस (सीएमईएस) ने रंगपुर जिले के एक ग्रामीण इलाके में हाल में ही एक कार्यक्रम पेश किया जिसमें उसने दहेज प्रथा को खत्म करने की अहमियत बताई और सार्वजनिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने की वकालत की.

यहां की हजारों महिलाएं दहेज से जुड़ी हिंसा के साये में जिंदगी बिताती हैं. एनजीओ बांग्लादेश महिला परिषद के मुताबिक साल 2011 में 330 महिलाओं की दहेज हिंसा के कारण मौत हुई. 2010 में 137 महिलाओं की मौत इसी कारण हुई थी. एनजीओ का कहना है कि 2013 में दहेज से जुड़ी हिंसा के 439 केस सामने आए. मुंह मांगा दहेज न देने पर कई बार महिलाओं की हत्या हो जाती है या फिर महिलाएं खुदकुशी कर लेती हैं. सीएमईएस के मोहम्मद रशीद का मानना है कि लोगों को शिक्षित करके ही प्रथाओं के प्रभाव को खत्म किया जा सकता है. रशीद कहते हैं, "जागरूकता अभियान में अभिभावकों, शिक्षकों, समुदाय और धार्मिक नेताओं और सरकारी अधिकारियों को शामिल करके हम सकारात्मक बदलाव लाने में सक्षम रहे हैं."

एए/ओएसजे (आईपीएस)