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हीरोज: पुरानी सोच और परंपरा पर पुनर्विचार की कोशिश

१९ जून २०१०

बर्लिन शहर में हीरोज नामके प्रोजेक्ट की तैयारी चल रही है. हीरोज का लक्ष्य है कि अलग अलग विचारों वाले युवाओं के दिमाग से धर्म और परंपरागत विश्वासों के बारे में उहापोह को सुलझाए जाने की कोशिश की जाए.

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तस्वीर: DW

बर्लिन के एक यूथ क्लब का एक पुराना सा हॉल. दस अरबी और तुर्की युवाओं के साथ अहमद मंसूर बातें कर रहे हैं. अहमद मंसूर फलीस्तीन के मनोवैज्ञानिक हैं, जो हीरोज प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं. चर्चा हो रही आत्मनिर्णय के अधिकार, इज्जत के नाम पर हत्या और परंपरागत शादियों पर.

Projekt Heroes
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"हम चाहते हैं कि हमारे समाज में महिलाओं और पुरषों को समान दर्जा मिले. मैंने कई बार लोगों की सोच पर गौर किया है. लोग अपने मन में महिलाओं और पुरुषों की एक छवि बना लेते हैं. इसे वे घर पर अपने माता पिता, दादा दादी से सीखते हैं. लेकिन, इन पुरानी, दकियानूसी बातों पर गौर कर इन्हें बदलना नहीं सीखते. हम इन्हीं सदियों पुरानी सोचों और परम्पराओं से लड़ रहें हैं. केवल तीन घंटे की इस क्लास में इसे हासिल करना नामुमकिन है. लेकिन, लोगों को सोचने पर मजबूर करना मुमकिन है.

हीरोज नाम का यह प्रोग्राम पहली बार स्वीडन में शुरू हुआ और जर्मनी में 2007 में आया. तब से बर्लिन में दूसरे देशों से आए लोगों को हीरोज बनने की ट्रेनिंग दी जाती है.

अहमद मंसूर जैसे मनोवैज्ञानिक कोशिश कर रहें हैं कि वे लोगों को समाज में वर्जित विषयों के प्रति संवेदनशील बनायें और टकराव जैसी परिस्थितियों से निपटना सिखाएं ताकि वे आगे अपने बच्चों को सही सीख दे सकें.


कई अरबी और तुर्की नौजवानों को शिकायतें हैं. वे कहते है कि उन्हें अकडू भाई या फिर पिता होने का खिताब दे दिया गया है. सब जगह उन्हें इसी नजर से देखा जाता है. लेकिन इस प्रोग्राम के जरिए उनकी यही झिझक दूर होती है.

थिएटर कला के शिक्षक यिलमाज़ अत्मासा बतात कहते हैं, "इस खेल के जरिए वे दूसरे इंसानों की भावनाओं को महसूस करते हैं. उन्हें यह आभास होता है कि किसी परिस्थिति में किसी इंसान की क्या हालत होती है. वे क्या सोचते हैं , क्या महसूस करते हैं.

Helden gegen Vorurteile
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हीरोज प्रोजेक्ट का दूसरा लक्ष्य यह भी है कि इन युवाओं के दिमाग से धर्म और परंपरागत विश्वासों के बारे में उहापोह को सुलझाया जाए. लेकिन सिर्फ पुरुष ही नहीं, समाज में ऐसी कई महिलाएं भी हैं, जो पुराने विचारों से चिपकी हुई हैं.

लड़कियां कई बार कहती हैं कि मुझे ऐसा पति चाहिए, जो मेरी रक्षा करे, मुझसे बातें करे और मेरे लिए पैसे भी कमाकर लाये. मैं काम करना नहीं चाहती, मेरे पति को काम करना चाहिए. ऐसी कई महिलाएं हैं, जो ऐसा सोचती हैं और इसकी अपेक्षा भी करती हैं. ऐसी महिलाओं को समझाना हमारे लिए बहुत मुश्किल होता है. क्योंकि उन्होंने यह मान लिया है कि उनकी जिन्दगी एक समझौता है.

लेकिन, इसी क्लास में ऐसी कई लड़कियां भी हैं जो अलग हालात में रहती हैं. नकाब पहने 15 साल की रना कहती है, " मेरे भाई को मुझसे कोई मतलब नहीं है कि मेरी कितनी सहेलियां है या फिर हैं भी कि नहीं. उसे मुझ से कोई मतलब नहीं है. और यह मुझे पसंद नहीं. "

अलग अलग देशों से आए अलग विचार वाले युवाओं को इस प्रोजेक्ट के जरिए साथ लाने की कोशिश हो रही है ताकि वे पुरानी परंपराओं और पुरानी सोच के खिलाफ आवाज उठा सकें.

रिपोर्ट: एजेंसियां/जैसू भुल्लर

संपादन: एस गौड़