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समाज

एसआरएफटीआई प्रबंधन के फैसले ने छेड़ी बहस

प्रभाकर मणि तिवारी
१७ अक्टूबर २०१७

एसआरएफटीआई ने एक साथ संस्थान की 14 छात्राओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया है. प्रबंधन की दलील है कि वे जबरन लड़कों के लिए बने हॉस्टल में रह रही थीं.

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Indien Kalkutta - Satyajit Ray Film and Television Institute
तस्वीर: DW/P. M. Tewari

पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता स्थित सत्यजित रे फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट (एसआरएफटीआई) प्रबंधन के एक फैसले ने मौलिक अधिकारों पर एक नई बहस छेड़ दी है. वैसे, यहां छात्रों और प्रबंधन के बीच आपसी संबंध कभी बेहतर नहीं रहे हैं. कभी परिसर में छेड़छाड़ तो कभी नैतिक पुलिस जैसे मुद्दों पर संस्थान अक्सर सुर्खियां बटोरता रहा है. यह एक बार फिर गलत वजहों से सुर्खियों में है. अबकी 14 छात्राओं को संस्थान से निकालने की घटना ने आपसी संबंधों में और कड़वाहट भर दी है. छात्रों का आरोप है कि प्रबंधन अपनी 'फूट डालो, राज करो' की नीति के तहत छात्रों और छात्राओं के बीच विभाजन पैदा करने का प्रयास कर रहा है. लेकिन प्रबंधन की दलील है कि वह सुरक्षा वजहों से ऐसा कर रहा है.

क्या है मामला

एसआरएफटीआई ने एक साथ संस्थान की 14 छात्राओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया है. यह अपने किस्म की पहली घटना है. प्रबंधन की दलील है कि जिन 14 छात्राओं को निकाला गया है वे जबरन लड़कों के लिए बने हॉस्टल में रह रही थीं. बार-बार कहने के बावजूद जब वह लड़कियों के लिए बने हॉस्टल में जाने पर राजी नहीं हुईं तो मजबूरन उक्त फैसला करना पड़ा.

वर्ष 2008 में संस्थान की गवर्निंग काउंसिल की बैठक में छात्र व छात्राओं के लिए अलग-अलग हॉस्टल बनाने का फैसला किया गया था. इसी के मुताबिक वर्ष 2015 में छात्राओं के लिए एक नया हॉस्टल बनाया गया. उससे पहले तक एक ही हॉस्टल के अलग-अलग हिस्सों में छात्र व छात्राएं साथ ही रहते थे. प्रबंधन ने इस साल जून में छात्राओं को नोटिस भेजकर कमरे खाली करने और लड़कियों के लिए बने हॉस्टल में शिफ्ट होने को कहा. इसके बाद कई लड़कियों ने तो कमरे बदल लिये. लेकिन 14 छात्राएं पुराने हॉस्टल में ही रहने पर अड़ी रहीं. प्रबंधन के साथ कई बैठकों और अभिभावकों को सूचना देने के बावजूद गतिरोध जस का तस बना रहा. बीते सप्ताह आखिरी बैठक के दौरान प्रबंधन ने छात्राओं को 48 घंटे के भीतर कमरे खाली करने या संस्थान से निकाले जाने का अल्टीमेटम दिया था. 

निदेशक की सफाई

संस्थान से निकाली गई छात्राओं में से एक नीलिमा (बदला हुआ नाम) कहती हैं, "छात्रों में विभाजन पैदा करने के लिए जानबूझ कर हमें पुराने हॉस्टल से निकालने का प्रयास हो रहा था. हमने मॉरल पुलिसिंग का विरोध किया था. इसी वजह से प्रबंधन ने बदले की भावना से यह फैसला किया है." संस्थान से निकाली गई छात्राओं का कहना है कि वे इस मुद्दे पर गवर्निंग काउंसिल के साथ बातचीत करना चाहती थीं लेकिन उनको इसका मौका नहीं दिया गया.

दूसरी ओर, संस्थान की निदेशक देवमित्रा मित्र कहती हैं, "बार-बार समझाने के बावजूद छात्राएं लड़कियों के लिए बने हॉस्टल में जाने के लिए राजी नहीं हुईं. इसी वजह से हमें कठोर फैसला करना पड़ा." डॉ. मित्र छात्राओं द्वारा लगाए गए आरोपों को निराधार बताती है. उनका कहना है, "ऐसा कोई नियम नहीं है कि छात्राओं के हॉस्टल में लड़के नहीं जा सकते. सुबह छह से रात दस बजे तक वे रह सकते हैं. हां, रात 10 बजे के बाद अगर कोई लड़का छात्राओं के हॉस्टल में रुकना चाहता है तो उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करना होगा. लेकिन लड़कियां इसके लिए भी तैयार नहीं हैं." प्रबंधन की दलील है कि छात्रों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ही प्रबंधन ने यह फैसला किया है. 

विशेषज्ञों की राय

संस्थान के छात्र-छात्राओं की दलील है कि यहां पढ़ने वाले तमाम छात्र बालिग हैं. ऐसे में वह अपने अच्छे-बुरे का फैसला खुद कर सकते हैं. छात्रों का सवाल है कि जब इतने साल से एक ही हॉस्टल में रहने के बावजूद कभी कोई समस्या नहीं हुई तो अब आखिर कौन सा पहाड़ टूट पड़ा है. दूसरी ओर, समाजशास्त्रियों व शिक्षाविदों ने भी संस्थान में प्रबंधन और छात्रों के बीच लगातार बढ़ती कड़वाहट पर गहरी चिंता जताई है. सेवानिवृत्त प्रोफेसर विमल सेनगुप्ता कहते हैं, "तमाम छात्र बालिग हैं. ऐसे में उनको खुद अपनी मर्जी से रहने-खाने का अधिकार है. उन पर जबरन कोई फैसला थोपना सही नहीं है."

समाजशास्त्री सिद्धार्थ नस्कर भी इससे सहमत हैं. वे कहते हैं, "यह जरूरी नहीं है कि एक हॉस्टल में रहने से छात्राओं की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी. रहने व खाने के मामले में छात्रों के पास अपनी मर्जी से फैसला करने का अधिकार होना चाहिए."

विशेषज्ञों का कहना है कि अनुशासन की बात अपनी जगह है, लेकिन कोई भी प्रबंधन नैतिकता का ठेका लेकर जबरन कोई फैसला नहीं थोप सकता. उनका कहना है कि सत्यजित रे के नाम पर बना यह संस्थान शुरुआत से ही अक्सर विवादों में रहा है. प्रबंधन को इसकी साख बनाए रखने की दिशा में ठोस पहल करनी चाहिए. तमाम विशेषज्ञ इस बात पर एकमत हैं कि छात्राओं को संस्थान से निकालने की बजाय बातचीत से यह समस्या सुलझाई जा सकती थी.