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70 साल के लोकतंत्र ने श्रीलंका को क्या दिया

७ अक्टूबर २०१७

श्रीलंका में जहां संसदीय लोकतंत्र की 70वीं सालगिरह का जश्न मनाया जा रहा है, वहीं तमिल, ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यक खुद को समाज के हाशिये पर महसूस करते हैं.

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Sri Lanka Colombo 70. Jahrestag des Parlaments
तस्वीर: Imago/Zuma Press/T. Basnayaka

इन अल्पसंख्यक समुदायों का देश की संसद में कुछ हद तक प्रतिनिधित्व है लेकिन उनका कहना है कि बहुसंख्यक बौद्ध सिंहली लोग उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं देते. 25 साल तक चले गृह युद्ध के जख्मों को भरने के लिए कुछ कोशिशें हुई हैं लेकिन देश की संसद अब भी 2009 में खत्म हुए युद्ध के दौरान हुए अपराधों की निष्पक्ष जांच कराने को तैयार नहीं है.

श्रीलंका की संसद पर आरोप लगते हैं कि वह सांस्कृतिक विविधता वाले देश को एकजुट करने की बजाय देश पर बहुसंख्यक सिंहालियों के शासन को थोप रही है, जिनकी देश की आबादी में हिस्सेदारी 70 फीसदी है. बढ़ते तनाव के बीच प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे समेत कई लोग यह सवाल उठाते हैं कि क्या श्रीलंका एक राष्ट्र का निर्माण करने में सफल रहा है. 70वीं वर्षगांठ पर संसद के विशेष सत्र में विक्रमसिंघ ने कहा, "हमने 1947 में एकजुट जनता के तौर पर शुरुआत की थी, लेकिन अतीत के सालों में हमारे यहां जातीय संघर्ष हुआ.. जो गृह यु्द्ध के बिंदु तक जा पहुंचा था." उन्होंने कहा, "इस दौरान हमने लोकत्रंत को बचाये रखा, लेकिन राजनीतिक समाधान मुहैया कराने और देश को एकजुट करने का काम अभी बाकी है."

लोकतंत्र के नुकसान

कई लोगों का कहना है कि जहां लोकतंत्र ने श्रीलंका को कई मोर्चों पर फायदा पहुंचाया है, वहीं इससे कुछ नुकसान भी हुए हैं. शोध और सामाजिक कार्य से जुड़ी एक संस्था नेशनल पीस काउंसिल के जेहान परेरा कहते हैं कि राजनीतिक तंत्र ने विभाजनों को बढ़ाया है. उनके मुताबिक, "जातीय रूप से विभाजित देश में बहुमत का शासन एक तरह से तानाशाही व्यवस्था में तब्दील हो सकता है जिसमें स्थायी बहुसंख्यक लोग स्थायी रूप से अल्पसंख्यक लोगों पर शासन करते हैं."

Sri Lanka Colombo 70. Jahrestag des Parlaments
प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे देश को एकजुट करने की जरूरत पर जोर देते हैंतस्वीर: Imago/Zuma Press/T. Basnayaka

यह विभाजन 1948 में श्रीलंका को ब्रिटेन से मिली आजादी के तुरंत बाद ही दिखने लगे थे. देश को आजादी मिलने के दो साल बाद ही संसद ने चाय बागानों में काम करने वाले भारतीय मूल के लाखों तमिल लोगों की नागरिकता और वोट देने का अधिकार छीन लिया था. इस कारण, उस इलाके के तमिल मूल निवासियों के बीच भी आशंकाएं जन्म लेने लगीं और देश के उत्तरी और पूर्वी हिस्सों में उन्होंने एक तरह के संघीय स्वशासन की मांग की. इन इलाकों में तमिल लोगों का बहुमत रहा है.

श्रीलंका में 1956 में सिंहली बौद्ध राष्ट्रवाद की लहर के साथ एक नयी सरकार सत्ता में आयी और उसने सरकारी कामकाज में अंग्रेजी के इस्तेमाल को खत्म कर दिया और उसकी जगह सिंहाला को इकलौती राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया गया. यहीं से श्रीलंका में जातीय संघर्ष के बीज पड़े, जिसने बाद में गृह युद्ध का रूप ले लिया. संयुक्त राष्ट्र के अनुसार लगभग 25 साल चले इस गृह युद्ध में कम से कम एक लाख लोग मारे गये.

समाज में बंटवारा

तमिल अल्पसंख्यकों के लिए समान अधिकारों की खातिर अहिंसक तरीके से मुहिम चलाने वाले लोगों पर हमले हुए और तमिल विरोधी दंगों में सैकड़ों लोग मारे गये. हजारों लोग देश छोड़ कर भागने को मजबूर हो गये.

इसके साथ ही श्रीलंका में एक अलग तमिल देश की मांग जोर पकड़ने लगी. 1970 के दशक की शुरुआत में उत्तरी और पूर्वी हिस्सों में तमिल युवा हथियार उठाने लगे और उन्होंने पुलिस और कई सरकारी इमारतों को छिटपुट हमलों में निशाना बनाना शुरू कर दिया. इस बीच, तमिल राजनेताओं ने देश का पहला संविधान बनाने पर होने वाली वार्ताओं का बहिष्कार कर दिया. उनका कहना था कि तत्कालीन संसद उनकी चिंताओं की तरफ ध्यान नहीं दे रही है.

लेकिन 1983 तक आते आते सरकार समर्थित सिंहली दंगाइयों ने देश भर में तोड़फोड़ शुरू कर दी और तमिलों को निशाना बनाया गया. यहीं से गृह युद्ध शुरू हुआ. दंगों में तमिल गांवों को जलाया गया और सैकड़ों लोग मारे गये. जो लोग बचे वे तमिल चरमपंथी संगठनों में शामिल हो गये.

Deutschland Tamilen Demonstration 2009 in Berlin
श्रीलंका बरसों तक गृह युद्ध की आग में तपा हैतस्वीर: picture-alliance/dpa/K.D. Gabbert

इस खूनी संघर्ष के कारण देश की संसद ने कुछ संवैधानिक बदलाव किए ताकि तमिल अल्पसंख्यकों को सत्ता में भागीदारी दी जा सके और अलगाववादी आंदोलन को कमजोर किया जा सके. 1987 में भारत की मध्यस्था से हुए समझौते के तहत श्रीलंका में प्रांतीय परिषद बनायी गयीं.

लेकिन इन परिषदों के जरिए तमिलों की स्वायत्तता की मांग पूरी नहीं हुई और दूसरी तरफ सिंहली लोग अल्पसंख्यक लोगों को सत्ता में ज्यादा हिस्सेदारी देने के हक में नहीं थे. संसद ने भाषा के मुद्दे पर भी अपने रुख को बदल दिया और तमिल को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया, लेकिन चाय बागानों में काम करने वाले भारतीय मूल के मजदूरों की नागरिकता और वोट देने के अधिकार का मुद्दा 2000 के दशक के शुरुआती सालों तक भी नहीं हल हो पाया.

किस पर गर्व करें?

वरिष्ठ तमिल पत्रकार वीरागथी थानाबालासिंघम कहते हैं, "हमारे संसदीय लोकतंत्र को लेकर गर्व करने जैसी कोई बात नहीं है. यह विफल रहा है." उनका कहना है, "1948 से ही सरकार ने ऐसे कानून बनाने शुरू कर दिये थे जिनसे अल्पसंख्यकों का शोषण होता है. इसी का नतीजा है कि युद्ध शुरू हुआ. इतनी तबाही के बाद भी सिंहली राजनीतिक व्यवस्था में ऐसा कोई बदलाव नहीं दिखता जिससे भविष्य में इस तरह के संकटों को रोका जा सके."

2009 में श्रीलंकाई सेना ने तमिल टाइगर्स के नेता प्रभाकरन को मार दिया और देश में ढाई दशक से चल रहा गृह युद्ध खत्म हुआ. इसके बाद उम्मीद बंधी थी कि अब देश में मेलमिलाप की कोशिशें होंगी और युद्ध के दौरान दोनों पक्षों की तरफ से जो भी अपराध हुए उनकी जांच होगी. लेकिन ऐसी किसी स्वतंत्र जांच की अनुमति नहीं दी गयी.

पिछले साल संसद ने विक्रमसिंघे का एक प्रस्ताव पास किया जिसके तहते देश का नया संविधान लिखा जाना है. इसमें अल्पसंख्यकों को ज्यादा अधिकार देने की बात कही गयी है. लेकिन राजनीतिक मतभेदों के कारण संविधान का मसौदा तैयार करने के काम में विलंब हो रहा है और प्रभावशाली बौद्ध भिक्षु इसका विरोध कर रहे हैं.

किसी भी नये संविधान को संसद में दो तिहाई मत से पास होना जरूरी है और संसद में सिंहालियों का बहुमत है. नया संविधान संसद से पास होने के बाद उसे जनमत संग्रह के जरिए जनता से मंजूर कराया जाएगा.

इस बीच, कथित युद्ध अपराधों और मानवाधिकारों के उल्लंघन की जांच पर सहमति संसद में दूर की कौड़ी नजर आती है. सिंहाली राष्ट्रवादियों की तरफ से इसका तीखा विरोध होता है. सत्ताधारी गठबंधन में भी इस बात पर मतभेद हैं. ऐसे में, तमिल राजनेताओं का संयम भी जवाब दे रहा है. संसद में एक तमिल विपक्षी नेता राजावारोथायाम संपथन कहते हैं, "इस देश में बेहद खतरनाक परिस्थितियों से हमने बहुत सबक सीखे हैं. यह एक त्रासदी होगी अगर हम देशभक्ति या कहें छद्म देशभक्ति के नाम पर इन परिस्थितियों को लगातार जारी रखने का प्रयास करते रहें."

एके/आईबी (एपी)