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कुछ याद उन्हें भी कर लो, जो लौट के घर ना आए

वीके/एमजे (रॉयटर्स)१ सितम्बर २०१६

दुनियाभर में करोड़ों लोग ऐसे हैं जो एक दिन घर से निकले और फिर कभी नहीं लौटे. उनके घरवाले आज भी उनका इंतजार कर रहे हैं. लेकिन सरकारें क्या कर रही हैं?

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Mexiko Polizei Symbolbild
तस्वीर: picture-alliance/Photoshot/P. Mera

16 साल पुरानी वह सुबह अब शोभा भट्ट को धुंधली सी ही याद है. पांच लोग उनकी दुकान पर आए और उनके पति श्याम को ले गए. काठमांडू के पास एक छोटी सी दुकान चलाने वाली भट्ट बताती हैं, "उन्होंने कहा कि कुछ सवाल पूछने हैं और थोड़ी देर में वापस आ जाएगा. मेरे पति ने मुझसे कहा कि फिक्र ना करूं, जल्दी ही लौटता हूं." 29 साल के श्याम कभी नहीं लौटे.

शोभा भट्ट का कहना है कि श्याम को माओवादियों ने अगवा किया था. तब नेपाल में माओवादी हिंसा जोरों पर थी. 2006 में राजशाही के खात्मे के साथ हिंसक आंदोलन का समापन हो गया. लेकिन दो बच्चों की मां शोभा का इंतजार आज भी जारी है. एक सुबह वह उम्मीद के साथ जगती है कि श्याम लौट आएगा. अगली सुबह निराशा से भरी उठती है कि वह कभी नहीं लौटेगा. वह कहती हैं, "मुझे तो अब तक नहीं पता कि मेरे पति का क्या हुआ. क्या उसे उन्होंने मार दिया? पता नहीं वह जिंदा है या नहीं. अगर नहीं है तो मुझे उसकी लाश चाहिए ताकि उसका अंतिम संस्कार कर दूं."

तस्वीरों में: जब डूब गई उम्मीद

किसी अपने का लापता हो जाना एक ऐसा हादसा है जिसमें तकलीफ वक्त के साथ-साथ बढ़ती जाती है. उसका कोई अंत नहीं होता. 30 अगस्त को दुनिया ने "इंटरनेशनल डे ऑफ द डिसअपीयर्ड" मनाया. दुनियाभर में करोड़ों लोग लापता हैं. लेकिन इस क्षेत्र में काम कर रहे कार्यकर्ता कहते हैं कि सरकारों, संस्थाओं और लोगों का ध्यान इस समस्या की ओर उतना नहीं है, जितना होना चाहिए. इंटरनेशनल रेड क्रॉस कमेटी के अध्यक्ष पीटर माउरर कहते हैं, "यह एक त्रासदी है जिससे करोड़ों लोग पीड़ित हैं. लेकिन आज भी इस पर बात नहीं होती. इस तरह की भयानक त्रासदी के प्रति ऐसी उदासीनता बेहद दुखद है."

माउरर कहते हैं कि किसी का लापता हो जाना एक संवेदनशील, सामाजिक और राजनीतिक समस्या है और इंतजार करते लोगों को जवाब खोजने में मदद करने के लिए सरकारों को एक राजनीतिक इच्छाशक्ति पैदा करनी चाहिए.

बच्चे, प्रवासी, कैदी

दुनिया में कितने लोग लापता हैं, अब तक इसका कोई ठोस आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. लेकिन 60 देशों में काम करने वाली रेड क्रॉस का अनुमान करोडो़ं में है. लापता लोगों में युद्धों की वजह से घरों से भागने के दौरान परिजनों से बिछड़ गए बच्चों से लेकर किसी वजह से जेल में डाल दिए गए कैदी और देश छोड़कर कहीं और गए प्रवासी तक हैं. दक्षिण एशिया में लापता लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है. अफगानिस्तान, पाकिस्तान, श्रीलंका, भारत और बाकी एशियाई देशों में दुनिया की 20 फीसदी आबादी रहती है. यह इलाका कुदरती कहर की जद में सबसे ज्यादा है. कभी बाढ़ तो कभी भूकंप की वजह से हर साल हजारों लोग बेघर होते हैं और उनमें से जाने कितने लापता हो जाते हैं.

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फिर इस इलाके में हिंसक विद्रोह भी लोगों को लील गए हैं. श्रीलंका के 26 साल लंबे सैन्य विद्रोह से लेकर कश्मीर में आजादी की मांग से जुड़े आतंकवाद तक ऐसे कई जरिये हैं जो लोगों के लापता हो जाने का कारण बने हैं. जैसे, इसी महीने बांग्लादेश में पुलिस ने आतंकवाद के आरोप में कई लोगों को हिरासत में लिया लेकिन उनका कोई अता-पता नहीं है. देश की मानवाधिकार संस्था 'अधिकार' का कहना है कि पिछले सात साल में खुद को पुलिस बताने वाले लोगों के साथ गए 287 लोग कभी घर नहीं लौटे. इनमें से 38 के शव मिल चुके हैं. 132 लोगों का पता नहीं चला कि वे कहां हैं और बाकी 117 अपने पीछे सिर्फ इंतजार छोड़ गए हैं.

8000 कश्मीरी

कुछ ऐसा ही हाल कश्मीर का भी है. भारतीय कश्मीर के वुनीगाम गांव में 70 साल की हाजरा बेगम अपने बेटे बशीर की एक आहट का इंतजार कर रही हैं. वह बताती हैं, "आर्मी वाले मेरे बेटे को उसकी दुकान से ले गए थे. उसकी बेकरी थी. जब आर्मी वाले उसे ले गए, उसके हाथों पर आटा लगा हुआ था. आर्मी वालों ने कहा कि वह हिरासत से भाग गया है. लेकिन मुझे उनका यकीन नहीं है. आर्मी ने हमारी रोजी-रोटी ही नहीं छीनी, हमारा बेटा भी छीन लिया."

कार्यकर्ता बताते हैं कि भारतीय कश्मीर में आठ हजार से ज्यादा लोग लापता हैं. ज्यादातर युवा हैं. बहुत से आतंकवादी या पूर्व आतंकवादी हैं. लेकिन मासूम नागरिकों की भी कमी नहीं है. हर साल इनके परिजन 30 अगस्त को जमा होते हैं और दुआ करते हैं कि एक दिन उनका इंतजार खत्म होगा. ऐसी ही दुआ दुनियाभर में करोड़ों लोग कर रहे हैं क्योंकि दुआ के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है.

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