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आपबीती 1800 रुपये के गुलाम की

१६ सितम्बर २०१६

भारत मानव तस्करी का गढ़ है. दुनिया के सबसे ज्यादा बंधुआ मजदूर इसी देश में रहते हैं. और सरकार के पास उसका कोई आंकड़ा तक नहीं है.

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Ziegelei in Srinagar Indien Archiv 2012
तस्वीर: picture alliance/Photoshot

श्रीकृष्णा राजहंसिया ने तीन साल रोजाना 14 घंटे काम किया. ईंट के भट्ठे की आंच में उनकी जिंदगी के तीन साल जलकर स्वाहा हो गए. लेकिन यह कीमत उनकी आजादी के लिए काफी साबित नहीं हुई. वह आज भी गुलाम हैं और ये गुलामी उन्हें एक छोटे से कर्ज के बदले में मिली थी. ओडिशा के सुरगुल गांव में अपने घर के सामने बैठे राजहंसिया याद करते हैं, "हमें गांव छोड़ना पड़ा क्योंकि हम भूखे मर रहे हैं. तब हमने सोचा था कि मेहनत करेंगे तो इज्जत की जिंदगी जी लेंगे."

लेकिन दुनिया वैसी नहीं है जैसी राजहंसिया ने सोची थी. उसमें बंधुआ मजदूरी जैसी प्रथा भी है जो न इज्जत देती है ना रोजी रोटी. भारत में यह प्रथा विकास के साथ और बढ़ती जा रही है. विकास के नाम पर देश में जमकर निर्माण कार्य हो रहा है. इसके लिए ईंटें चाहिए. ईंटें भट्ठों पर बनती हैं. और भट्ठे बंधुआ मजदूरी का गढ़ बनते जा रहे हैं.

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मानवाधिकार कार्यकर्ता बताते हैं कि इन भट्ठों पर कोई श्रम कानून नहीं चलता. यहां बस दो तरह के लोगों की चलती है. एक वे जो भट्ठों के मालिक हैं और दूसरे वे दलाल जो दूर-दराज के गरीब गांवों से लोगों को बहला-फुसलाकर यहां मजदूरी करने ले आते हैं. उसके बाद ये गरीब लोग ऐसे कुचक्र में फंसते हैं कि ताउम्र गुलामी में बिता देते हैं. राजहंसिया की कहानी इसकी एकदम सही तस्वीर है.

राजहंसिया से एक दलाल ने संपर्क किया. राजहंसिया आंध्र प्रदेश में एक ईंट भट्ठे पर काम करने को तैयार हो गए लेकिन वह अपने बीवी बच्चों को भी साथ ले जाना चाहते थे. इसके लिए दलाल ने उन्हें 18 हजार रुपये का कर्ज दिया. राजहंसिया ने सोचा था कि मजदूरी करेंगे तो कमाई से चुका देंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. वह बताते हैं, "सबसे पहले तो उन्होंने हमसे हमारे फोन छीन लिए. वहां 24 घंटे गार्ड तैनात रहते थे ताकि कोई मजदूर भाग न जाए. यहां तक कि हम बाजार भी अकेले नहीं जा पाते थे. रात को हमारे बच्चों को मालिक के घर में रखा जाता था ताकि हम लोग रात को भाग न सकें. अब कोई अपने बच्चे छोड़कर कैसे भाग सकता था."

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गाली-गलौज रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा था. अगर कोई मजदूर कहता कि वह बीमार है और काम नहीं कर सकेगा तो उसकी आंखों में लाल मिर्च पाउडर डाल दिया जाता. दलाल ने वादा किया था कि एक हजार ईंट बनाने पर 250 रुपये मिलेंगे लेकिन मिलते थे बस 100 रुपये. राजहंसिया कहते हैं, "हमें हर हफ्ते कुछ पैसे दिए जाते थे जिनसे हम बस जरूरी चीजें खरीद पाते थे. कहते थे कि बाकी पैसा एक साथ काम खत्म होने के बाद मिलेगा. उन्हें डर था कि पूरा पैसा लेकर हम भाग जाएंगे."

राजहंसिया एक पुलिस छापे के बाद ही भट्ठे से निकल पाए. पुलिस ने उन्हें वहां से छुड़ाया और तब वे घर लौट सके. लेकिन अभी सब खत्म नहीं हुआ है. राजहंसिया का बेटा आज भी उसी भट्ठे में काम कर रहा है. वह कहते हैं, "18000 रुपये का कर्ज अभी बाकी है. मेरा बेटा अभी वहीं काम कर रहा है. पत्नी को भी शायद जाना होगा. क्योंकि पेट तो भरना ही है और हमारे पास और कोई विकल्प नहीं है."

राजहंसिया की यह कहानी हजारों लोगों की कहानी है. हालांकि कोई सटीक आंकड़ा नहीं है कि कितने लोग भट्ठों पर काम करते हैं लेकिन सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायर्नमेंट ने 2015 में एक रिसर्च की थी जिसके मुताबिक ऐसे करीब एक करोड़ लोग हैं. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1978 से अब तक 18 राज्यों के 172 जिलों से कुल दो लाख 82 हजार बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया गया है. ओडिशा के बलांगीर जिले से ही 2011 से अब तक 2488 बंधुआ मजदूर रिहा कराए जा चुके हैं.

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लेकिन मुक्त करा लेने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि इन मजदूरों के पास और कोई रोजगार नहीं होता. इसलिए वे फिर से उसी जगह जा फंसते हैं. बलांगीर के पुलिस अधिकारी आशीष कुमार बताते हैं, "पिछले साल हमने 1200 मजदूरों को रिहा कराया और उन्हें उनके घर भेज दिया. दो दिन बाद वे फिर लापता हो गए. कोई और दलाल उन्हें किसी और जगह ले गया."

वीके/एके (रॉयटर्स)