क्या जनरल राहील शरीफ तारीफ के हकदार हैं?
२८ नवम्बर २०१६वैसे पाकिस्तान में महीनों से अफवाहें उड़ रही थीं कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ 28 नवंबर को जनरल राहील शरीफ का कार्यकाल खत्म होने से पहले उसे बढ़ा देंगे. आर्मी चीफ के समर्थकों का कहना है कि देश के कबायली इलाकों में चरमपंथियों के खिलाफ अभियान और भारत के साथ जारी तनातनी के बीच सेना की कमांड में बदलाव ठीक नहीं होगा.
पाकिस्तान में बहुत से लोग मानते हैं कि जनरल राहील शरीफ ने खुद को एक सक्षम कमांडर साबित किया है. उन्हें न सिर्फ चरमपंथियों के खिलाफ कार्रवाई करने का श्रेय दिया जाता है बल्कि यह भी कहा जाता है कि वह देश में जारी भ्रष्टाचार के बिल्कुल खिलाफ हैं. अब जबकि वह रिटायर हो रहे हैं तो मीडिया और सोशल मीडिया में "थैक यू राहील शरीफ" के संदेश की बाढ़ आई हुई है. लेकिन क्या राहील शरीफ वाकई इस तारीफ के हकदार है?
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भारत, बांग्लादेश और श्रीलंका समेत दुनिया के बहुत से देशों में यह बात ज्यादा मायने नहीं रखती कि देश का सेना प्रमुख कौन है. लेकिन पाकिस्तान में सेना का दबदबा है. वहां सेना प्रमुख ही देश का असली नेता माना जाता है और सभी अहम नीतियां उसकी मर्जी से बनती हैं. राहील शरीफ के नेतृत्व में सेना की ताकत में कई गुना इजाफा हुआ है.
तीन साल पहले जब राहील शरीफ ने सेना की कमान संभाली, तो फौजियों का मनोबल खासा कमजोर था. मई 2011 में पाकिस्तान के एबटाबाद में अमेरिकी सेना के एक अभियान में अल कायदा नेता ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद पाकिस्तानी सेना पर घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दबाव था. पाकिस्तान के लोगों के लिए ओसामा बिन लादेन की मौत अहम नहीं थी, बल्कि उन्हें चिता इस बात की थी कि किसी देश की सेना बिना बताए उनके देश में घुसी और अभियान को अंजाम देकर चली गई. और सेना और सरकार, किसी को कानोकान खबर नहीं हुई. उस वक्त के सेना प्रमुख जनरल परवेज अश्फाक कयानी को इसके लिए बहुत आलोचना झेलनी पड़ी. लेकिन उनके उत्तराधिकारी जनरल राहील शरीफ ने अपने कार्यकाल में सोशल मीडिया पर धुआंधार प्रचार के जरिए सेना की छवि को बहाल किया.
लेकिन पाकिस्तान को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है. विश्लेषक आयशा सिद्दिका ने एएफपी समाचार एजेंसी को बताया, "जनरल शरीफ इस बात के लिए याद किए जाएंगे कि उन्होंने देश के भीतर हर जगह सेना को तैनात कर दिया. उन्होंने स्टेट के भीतर एक स्टेट बना दिया.”
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मानवाधिकार समूह कहते हैं कि उन्होंने आतंकवाद से लड़ने के नाम पर सेना की ताकत को ही मजबूत किया है. सेना का कहना है कि उसने जून 2014 में शुरू हुए अभियान जर्ब ए अज्ब में अब तक साढ़े तीन हजार आतंकवादियों को मारा है. सेना ने आतंकवादी मामलों की सुनवाई के लिए अपनी अलग अदालतें कायम कीं जिनके जरिए पिछले डेढ़ साल में कई लोगों को फांसी पर लटकाया गया है.
लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि अब भी चरमपंथी इतनी ताकत रखते हैं कि कहीं भी हमला कर सकें. इससे सेना की आतंकवाद विरोधी रणनीति की लचरता साफ दिखाई देती है. अमेरिकी में सुरक्षा और कट्टरपंथी इस्लाम पर जानकार आरिफ जमाल ने डीडब्ल्यू को बताया, "देश में आतकवादी ढांचा यूं का यूं मौजूद है और चरमपंथी जहां चाहते हैं, वहीं हमला कर देते हैं.” पाकिस्तान की जानी-मानी मानवाधिकार कार्यकर्ता आस्मा जहांगीर सेना पर चुनी हुई सरकार को कमजोर करने का आरोप लगाती हैं ताकि देश में सेना का दबदबा बना रहे. हाल में 'डॉन' अखबार में छपी विवादित रिपोर्ट से सेना और सरकार के बीच मतभेदों का संकेत मिलता है.
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इसके अलावा अमेरिका समेत अंतरराष्ट्रीय बिरादरी ने बार-बार पाकिस्तानी सेना पर आरोप लगाए हैं कि वो अफगानिस्तान और भारत प्रशासित कश्मीर में इस्लामी चरमपंथियों की मदद कर रही है. ब्रसेल्स स्थित पत्रकार खालिद हमीद फारूकी कहते हैं कि जनरल राहील शरीफ के नेतृत्व में सेना प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को हमेशा शक की नजर से देखती रही क्योंकि वह भारत के साथ संबंध सुधारने की राह पर बढ़ रहे थे. फारूकी कहते हैं, "शरीफ समझते हैं कि पड़ोसी देशों के साथ उदार और अच्छे रिश्ते ही पाकिस्तान के हक में हैं. लेकिन पाकिस्तान में कई ऐसे समूह हैं जो इस बात से सहमत नहीं हैं.”
अब जनरल राहील शरीफ के बाद सेना की बागडोर नए चीफ कमर जावेद बाजवा के हाथ में होगी. लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि वह भी सिविलियन सरकार को ज्यादा तवज्जो न देने की राहील शरीफ की नीति पर ही चलेंगे. हालांकि विश्लेषकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि राहील शरीफ का कार्यकाल न बढ़ना पाकिस्तान के लिए अच्छा संकेत है. इससे वहां लोकतंत्र मजबूत होने का इशारा मिलता है. सेना की ताकत के आगे न झुककर नवाज शरीफ ने पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूत ही किया है.