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समाज

दलित और सवर्ण की शादी कितनी कामयाब?

क्रिस्टीने लेनन
८ दिसम्बर २०१७

भारत में जातीय व्यवस्था और उससे जुड़ी खामियां हमेशा सुर्खियों में रहती हैं. अंतरजातीय शादियां हालात बेहतर करने का एक तरीका हो सकती हैं. लेकिन सरकारी प्रोत्साहन के बावजूद कितनी सफल हैं ऐसी शादियां?

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Symbolbild Hochzeit Ehe Indien Pakistan
तस्वीर: Fotolia/davidevison

तमाम सामाजिक और राजनीतिक प्रयासों के बावजूद भारतीय समाज में जातीय अहंकार और इससे जुड़ी बुराइयां अब तक नहीं मिट पायी हैं. अंतरजातीय विवाह को जातीय व्यवस्था की बुराइयों से निपटने में एक सक्षम हथियार माना जाता है. इसके बावजूद ऐसे विवाहों के प्रति समाज सहज नहीं हो पाया है. खासतौर पर दलित–गैर दलित विवाह को लेकर लगातार नकारात्मक खबरें आती रहती हैं.

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समाज में जाति व्यवस्था अभी भी मजबूत है. वर्ण व्यवस्था में अगड़ी मानी जाने वाली जातियों के बीच तो विवाह होने लगे हैं लेकिन अगड़ी जातियों के लोग निम्न मानी जाने वाली दलित-अछूत जाति में आज भी कोई रोटी-बेटी का संबंध नहीं करना चाहते. ‘दलित आदिवासी मंच' के माध्यम से अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करने के प्रयास में जुटे डॉ. अनूप श्रमिक का कहना है, "संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने समाज से छुआ छूत मिटाने के लिए रोटी-बेटी के संबंधों पर खासा जोर दिया है.”

वैसे, सरकार ने भी समय समय पर अंतरजातीय विवाह को प्रोत्साहित करने के कदम उठाये हैं. 2013 से डॉ. अंबेडकर के नाम पर "स्कीम फॉर सोशल इंटीग्रेशन थ्रू इंटरकास्ट मैरिज” के तहत आर्थिक प्रोत्साहन राशि भी दी जा रही है. इस योजना के तहत यदि कोई गैर दलित किसी दलित लड़की से विवाह करता है तो सरकार उस जोड़े को ढाई लाख रुपये की मदद देती है. लेकिन अभी तक यह मदद सिर्फ तभी दी जाती थी जब दंपति की सालाना आय पांच लाख रुपये से कम हो. अब इस शर्त को हटा दिया गया है. डॉ. अनूप श्रमिक का कहना है कि अंतरजातीय विवाह के फायदे तो हैं लेकिन मुश्किलें भी कम नहीं है.

बदलता समाज

आधुनिकता की बयार कहें या शहरीकरण से उपजी नयी सामाजिक संरचना, लेकिन अब धीरे धीरे अंतरजातीय विवाह की स्वीकार्यता बढ़ रही है. शोध छात्रा प्राची भट्ट एक दलित युवक से शादी के बाद सुखद जीवन जी रही हैं. उनके पति हेमंत टोप्पो कहते हैं कि जाति को लेकर उनके परिवारों के बीच कोई दिक्कत नहीं हुई. वहीं पेशे से डेंटिस्ट डॉ. क्षिति पांडव और उनकी डेंटिस्ट पत्नी डॉ. यशा का भी अंतरजातीय विवाह को लेकर अनुभव अच्छा रहा है. क्षिति कहते हैं कि शुरूआती नाराजगी के बाद दोनों परिवारों ने उनकी शादी को स्वीकार कर लिया.

बॉम्बे हाई कोर्ट के अधिवक्ता रवि श्रीवास्तव कहते हैं कि परिवार की सामाजिक हैसियत में अंतर हो तो अधिकतर जोड़ों को समस्या आती है. उनके अनुसार, "शहरी शिक्षित मध्यम वर्ग के लोग कानून या पुलिस के चक्कर में फंसने की बजाय जोड़ों को अपने हाल मे ही छोड़ देते हैं.”

चुनौतियाँ

वहीं दलित युवती नेहा (बदला हुआ नाम) उच्च शिक्षित हैं और पेशे से शिक्षिका हैं. सवर्ण जाति के युवक से विवाह के अपने फैसले पर उन्हें पछतावा है. शादी को दु:स्वप्न बताते हुए वह कहती हैं, "जाति को लेकर लगातार अपमानजनक व्यवहार संबंधियों द्वारा होता रहा." वह कहती हैं कि कमाऊ पत्नी होने बावजूद नाकारे पति ने जाति सूचक ताने और मारपीट से जीना दूभर कर दिया. अपने आंसू पोंछते हुए वह बताती हैं कि उनका परिवार शादी के निर्णय के खिलाफ था. अब शादी के नाकाम होने पर साथ देने वाला कोई नहीं है.

समाजशास्त्री और रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. साहेबलाल का कहना है कि कमज़ोर आर्थिक हैसियत वाले दलितों के लिए जाति जोंक की तरह है जो एक बार चिपक जाती है तो उम्र भर पीड़ा देती है. आधुनिक सोच और प्रगति के बाद भी दलितों के साथ रोटी-बेटी के संबंध आसानी से स्वीकार नहीं किये जाते.

जागरूकता की ज़रूरत

प्राची का कहना है कि शिक्षा और जागरूकता के जरिये ही जातीय बंधन को तोड़ा जा सकता है. आर्थिक प्रोत्साहन से ज्यादा सुरक्षा को महत्वपूर्ण बताते हुए प्राची कहती हैं कि आर्थिक लाभ के लालच में हुए विवाह की परिणिति सुखद नहीं होगी. केंद्रीय सामाजिक न्याय राज्य मंत्री और महाराष्ट्र की राजनीति में एक बड़े दलित चेहरा रामदास अठावले भी जातिगत बाधाएं तोड़ने में अंतरजातीय विवाह की वकालत करते हैं. उनका कहना है कि उन्होंने खुद एक ब्राह्मण लड़की से शादी की है जो जातिगत बाधाएं तोड़ने के लिए डॉ. अंबेडकर के विचारों के अनुरूप है. रामदास अठावले आर्थिक मदद और सरकारी प्रोत्साहन को उपयोगी मानते हैं.

बहरहाल जातिवाद के खात्मे में अंतरजातीय विवाह को उपयोगी मानने वालों की संख्या कम नहीं है, लेकिन इसकी स्वीकार्यता को व्यापक बनाने के लिए लोकप्रिय सामाजिक आंदोलन की जरूरत भी महसूस की जा रही है.