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भारत और चीन, कभी पास पास तो कभी दूर दूर

मारिया जॉन सांचेज
१ जून २०१७

बर्लिन में भारतीय और चीनी प्रधानमंत्रियों की चांसलर अंगेला मैर्केल से मुलाकात के बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर दोनों के महत्व पर चर्चा होती दिखी तो दोनों के आपसी रिश्तों में तल्खी है.

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Staatsbesuch Indiens Premierminister Modi besucht China Xi Jinping
तस्वीर: Reuters/K. Kyung-Hoon

तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की दिसंबर 1988 के अंत में हुई चीन यात्रा के बाद भारत और चीन के रिश्तों पर 26 साल से छाई बर्फ पिघली थी और दोनों देशों ने तय किया था कि सीमा विवाद को हल करने के लिए सतत प्रयत्न जारी रखने के साथ-साथ आर्थिक एवं अन्य क्षेत्रों में संबंध सुधारने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाए और सीमा विवाद के कारण इसमें बाधा न आने दी जाए. तब से अब तक दोनों देश इसी रास्ते पर आगे बढ़ते आ रहे हैं.

नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद पड़ोसी देशों के साथ संबंध सुधारने के लिए बहुत जोशोखरोश के साथ सक्रिय कूटनीतिक कदम उठाए लेकिन उनका वांछित परिणाम नहीं निकला. चीन के साथ संबंध भी पिछले तीन सालों में आगे नहीं बढ़े हैं बल्कि उन्हें कुछ सीमा तक धक्का ही लगा है. हालांकि अहमदाबाद में साबरमती के किनारे मोदी के साथ झूला झूलते चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की तस्वीरों और दोनों नेताओं के बीच गर्मजोशी ने कुछ और ही उम्मीद जगाई थी.

पिछले सप्ताह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम में देश के सबसे लंबे पुल का उद्घाटन किया जो राज्य के सुदूर पूर्व के क्षेत्र को अरुणाचल प्रदेश से जोड़ता है. इस पुल के कारण अब इस ओर से उस ओर जाने में पांच घंटे कम समय लगेगा. दूसरे, इस पुल पर से टैंक तथा अन्य रक्षा उपकरण भी आसानी से गुजर सकते हैं. इस पर चीन की तीखी प्रतिक्रिया यह दर्शाने के लिए काफी है कि दोनों महादेशों के बीच सब कुछ पहले जैसा नहीं रह गया है.

पुल के उद्घाटन के बाद चीन ने भारत को आगाह करते हुए अरुणाचल प्रदेश में ढांचागत सुविधाओं का निर्माण करने में "सावधानी” और "संयम” बरतने की सलाह दी है और कहा है कि जब तक सीमा विवाद हल नहीं हो जाता, तब तक दोनों देशों को संयुक्त रूप से सीमावर्ती क्षेत्र में विवादों को नियंत्रित करने और अमन-चैन बरकरार रखने का काम करते रहना चाहिए.

चीन अरुणाचल प्रदेश के तवांग क्षेत्र को अपना हिस्सा मानता है और उसे दक्षिण तिब्बत के नाम से पुकारता है. वह अक्साई चिन पर भी दावा करता है. हाल ही तक उसका प्रस्ताव था कि यदि भारत अक्साई चिन के पठार पर अपना दावा छोड़ दे तो वह अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा छोड़ देगा. लेकिन अब स्थिति बदल रही है. अब वह अपनी ओर से कोई रियायत नहीं देना चाहता और भारत से उम्मीद करता है कि वह अपने सभी दावे छोड़ दे.

दरअसल शी जिनपिंग के कार्यकाल में चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं. हाल ही में घोषित ओबोर परियोजना से इसकी एक झलक मिलती है. अब वह केवल एशियाई महाशक्ति की भूमिका से संतुष्ट नहीं है बल्कि अमेरिका की तरह विश्व की एकमात्र महाशक्ति बनने के ख्वाब देख रहा है. ओबोर उसकी ओर से एकतरफा ढंग से घोषित परियोजना है जिसके भूमंडलयीय, भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक निहितार्थ स्पष्ट हैं.

अब चीन बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की बात भी नहीं करता क्योंकि उसका असली उद्देश्य आने वाले दशकों में अमेरिका की जगह लेना है. पर्यावरण जैसे मुद्दों पर भी अब वह अन्य देशों के साथ सलाह-मशविरा करके रुख तय करने के बजाय सीधे अमेरिका के साथ वार्ता करता है. भारत के प्रति भी उसका दृष्टिकोण इसी प्रक्रिया में बदला है और वह इस बात पर बहुत गर्वित है कि उसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) भारत के सकल घरेलू उत्पाद का पांच गुना है. इसलिए अब भारत के प्रति उसका रवैया समझौतावादी होने के बजाय वर्चस्ववादी होता जा रहा है.

समस्या यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह समझते हैं कि शीर्ष नेताओं के बीच मधुर व्यक्तिगत संबंध देशों के बीच संबंधों को भी मधुर बना सकते हैं, जबकि वस्तुस्थिति इसके ठीक उलटी है. पुरानी कहावत है कि देशों के स्थायी मित्र या स्थायी शत्रु नहीं होते, केवल स्थायी राष्ट्रीय हित होते हैं. पिछले तीन वर्षों के दौरान मोदी सरकार चीन या पाकिस्तान जैसे देशों के प्रति ही नहीं, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे मित्र देशों के प्रति भी विदेश नीति का कोई वैकल्पिक आख्यान प्रस्तुत नहीं कर पायी है, बल्कि इन मित्र देशों के साथ भी संबंध पहले की अपेक्षा कुछ खराब ही हुए हैं.

मोदी सरकार के सामने चीन जैसी महाशक्ति से निपटने की चुनौती है. इस चुनौती का सामना सीमा पर तनाव बढ़ाकर या आर्थिक क्षेत्र में असहयोग करके नहीं, बल्कि यथार्थपरक विदेश नीति पर चल कर ही किया जा सकता है. भारत भी कोई छोटा-मोटा देश नहीं है जिसे नजरंदाज किया जा सके.