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महिलाओं के लिए घंटे निर्धारित कर फंसे स्विमिंग पूल

विवेक कुमार१ जुलाई २०१६

न्यूयॉर्क में दो स्विमिंग पूल महिलाओं के लिए अलग समय निर्धारित करने को लेकर आलोचना झेल रहे हैं. मानवाधिकार आयोग ने उन्हें नोटिस भेजा है.

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तस्वीर: goodluz/Fotolia.com

अमेरिका के न्यूयॉर्क में दो स्विमिंग पूल मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों से घिर गए हैं क्योंकि वहां महिलाओं के लिए अलग समय निर्धारित है. लोगों का कहना है कि यह समय धार्मिक आधार पर निर्धारित किया गया है इसलिए उन कानूनों का उल्लंघन करता है जिनके तहत धर्म और राज्य को अलग-अलग रखा जाएगा.

न्यूयॉर्क टाइम्स अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक ब्रुकलिन के दो स्विमिंग पूलों को मानवाधिकार आयोग की तरफ से नोटिस भेजा गया है. यहां महिलाओं के लिए अलग घंटे निश्चित किए गए हैं. इस बारे में किसी ने मानवाधिकार आयोग से शिकायत की है. शिकायत करने वाले ने अपनी पहचान जाहिर नहीं की है.

न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट बताती है कि शहर में 55 स्विमिंग पूल हैं लेकिन सिर्फ दो ऐसे हैं जो महिलाओं के लिए अलग से समय देते हैं. हफ्ते में तीन दिन, तीन घंटे के लिए इन पूलों में कोई पुरुष नहीं आ सकता. जैसे कि बुधवार सुबह 9 बजते बजते इंस्ट्रक्टर सीटी बजा देते हैं और सबको बाहर कर देते हैं ताकि सिर्फ महिलाएं तैर सकें.

अखबार ने इस बारे में पूल अधिकारियों से बात की तो उनका कहना है कि पूल में सिर्फ महिलाओं के लिए अलग समय इसलिए निर्धारित किया गया है ताकि आसपास रहने वालीं हसीदी महिलाएं इस सुविधा का इस्तेमाल कर सकें. विलियम्सबर्ग और क्राउन हाइट्स के इलाकों के इन दोनों पूलों के आसपास हसीदी तबका काफी बड़ी तादाद में रहता है. इस तबके की महिलाएं बुर्का पहनती हैं और काफी धार्मिक मानी जाती हैं. क्योंकि वे पुरुषों के साथ नहाने में झिझकती होंगी, ऐसा मानकर पूल के प्रशासन ने उनके लिए अलग से वक्त निर्धारित किया है. पूल का कहना है कि ऐसा 20 साल से हो रहा है. न्यूयॉर्क टाइम्स अपनी रिपोर्ट की शुरुआत में ही उन महिलाओं के पूल में होने के दृश्य को बयान करता है. उसमें लगभग मजाक उड़ाने के लहजे में लिखा गया है कि इस वक्त जो हसीदी महिला तैर रही है, उसने ऐसे कपड़े पहन रखे हैं कि 1922 में पूल शुरू होने के वक्त भी उन्हें अति संकोची कहा जाता.

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पूल में सिर्फ पुरुषों के लिए अलग से कोई समय निर्धारित नहीं है. हसीदी पुरुष सामान्य समय में ही सेवाओं का इस्तेमाल करते हैं. मानवाधिकार आयोग को किसी अनजान द्वारा भेजी गई शिकायत में कहा गया है कि सार्वजनिक सुविधाओं के लिए लिंग आधारित भेदभाव नहीं किया जा सकता.

आलोचकों का कहना है कि महिलाओं के लिए अलग घंटे देकर पूल एक सार्वजनिक सुविधा में धर्म आधारित छूट दे रहा है जो चर्च और राज्य के अलग-अलग होने के कानून का उल्लंघन है. पूल की इस नीति के समर्थकों का कहना है कि एक अल्पसंख्यक समुदाय सुविधाओं का इस्तेमाल कर सके इसके लिए विशेष कदम उठाए गए हैं. ऐसा करके यह सुनिश्चित किया गया है कि सार्वजनिक सुविधाएं सभी के लिए हों. यह कुछ वैसा ही है जैसे कि विकलांगों के लिए रैंप बनाए जाते हैं ताकि उन्हें व्हील चेयर से चलने में दिक्कत न हो.

न्यूयॉर्क टाइम्स लिखता है कि महिलाओं के लिए अलग समय शुरू होने से पहले जब सभी पुरुषों को बाहर निकलने को कहा गया तो एक नागरिक टिम मेन ने गुस्से में कहा, मैं चाहता हूं कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक जाए. मेन ने अखबार से कहा, “बात पूल से बाहर निकालने की नहीं है. बात यह है कि एक धर्म में लागू किसी पाबंदी को सार्वजनिक जीवन में जगह दी जा रही है.”

राज्य विधानसभा में बोरो पार्क इलाके के प्रतिनिधि डेमोक्रैट नेता डोव हिकिंड पूल का समर्थन करते हैं. वह कहते हैं कि यह शहर की बहुसांस्कृतिक पहचान का मामला है. उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स से कहा, “न्यूयॉर्क में हर पृष्ठभूमि के लोग रहते हैं. हर कोई सांस्कृतिक संवेदनशीलता की बात करता है. आप सोच सकते हैं कि शहर प्रशासन को (धार्मिक नियमों के आगे) झुकना चाहिए या नहीं. लेकिन यह भी तो तर्क है कि सभी को जगह मिलनी चाहिए.”

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लेकिन हिकिंड के तर्क से बहुत से लोग असहमत हैं. न्यूयॉर्क सिविल लिबर्टीज यूनियन की डोना लीबरमान कहती हैं कि धर्म लोगों का निजी मसला है, उसके आधार पर सार्वजनिक नियम नहीं बनाए जाने चाहिए. लीबरमान ने कहा, “जिन लोगों को महिलाओं और पुरुषों के एक साथ पूल में तैरने पर धार्मिक आपत्तियां हैं, वे इस पर विश्वास रखने के लिए आजाद हैं. वे चाहें तो स्विमिंग पूल की सुविधा को अपने इस विश्वास के हिसाब से ही इस्तेमाल करें. लेकिन वे लोग एक सार्वजनिक पूल पर अपने यह विश्वास थोप नहीं सकते. यहां हम एक धार्मिक विश्वास के आधार पर बाकी शहरवासियों को बांधने की कोशिश कर रहे हैं.”

77 साल की मरियम काहन इस सुविधा का फायदा उठाती रही हैं. वह कहती हैं कि हमारे धर्म में महिलाओं को ना बीच पर जाने की इजाजत है, ना फिल्म देखने की. हमें इतना सा मिल रहा है, क्या नहीं मिलना चाहिए?

विवेक कुमार