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समाज

आत्मघाती हमलावर बनी लड़की को फिर से जिंदगी मिली

४ अगस्त २०१७

फातिमा अली 14 साल की थी जब नाइजीरिया के आतंकवादी संगठन बोको हराम ने उसे अगवा कर लिया था. आत्मघाती हमलावर बनाकर उसे मिशन पर भी भेजा गया. लेकिन आज वह जिंदा है. पढ़िए फातिमा की कहानी.

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Nigeria Flüchtlingslager Maiduguri - Fatima Ali entkam Boko Haram
तस्वीर: picture-alliance/dpa/K. Palitza

अब फातिमा 17 साल की हो गयी है. लेकिन अपनी इस छोटी सी जिंदगी में वह काफी कुछ देख चुकी है. सिर पर स्कार्फ बांधे हुए फातिमा बताती है, "मुझे तो असल में मर जाना चाहिए था."

तीन साल पहले की बात है. हथियारबंद बोको हराम के आतंकवादियों ने नाइजीरिया के बोर्नो राज्य के बामा कस्बे में हमला किया. वह फातिमा के घर में घुस गये जहां वह अपने माता-पिता और बहन-भाइयों के साथ रहती थी.

वह बताती है, "मैं दरवाजे के पीछे छिप रही थी, लेकिन उन्होंने मुझे ढूंढ लिया. उन्होंने मुझे पकड़ा और घर से बाहर ले गये." फातिमा ने बिलखते हुए छोड़ देने की फरियाद की लेकिन चरमपंथियों का दिल नहीं पसीजा. फातिमा को पीटा गया. उसके साथ कई और महिलाएं और बच्चे भी थे जिन्हें कई गाड़ियों में भर कर सामबिसा के जंगलों में आतंकवादी शिविर में ले जाया गया. वहां उन्हें पश्चिमी तौर तरीके छोड़ने को कहा गया.

आतंकियों के एक कमांडर ने घोषणा की कि लड़कियों और महिलाओं को पति दिये जाएंगे. लेकिन फातिमा का कहना है कि उसने आतंकवादियों के सामने झुकने से इनकार कर दिया था. वह बताती है, "मैंने कहा, मेरी सगाई हो चुकी है. मेरी शादी की तारीख पहले ही तय हो चुकी है." फातिमा की जिद को देखते हुए कमांडर ने उसे अन्य अगवा की गयी लड़कियों और महिला से अलग कर दिया.

फातिमा बताती है कि हर रोज उसका शारीरिक और मानसिक शोषण होता था और उससे पश्चिमी संस्कृति को त्यागने के लिए कहा जाता था. स्थानीय हाउसा भाषा में बोको हराम का शाब्दिक अर्थ होता है पश्चिमी शिक्षा हराम है. यह चरमपंथी गुट कट्टरपंथी इस्लामी शरिया कानून लागू करना चाहता है. 

बोको हराम ने 2009 से नाइजीरिया, चाड, कैमरून और निजेर में कम से कम 20 हजार लोगों की जानें ली हैं. उसने हजारों लड़कियों और महिलाओं का अपहरण किया है जिन्हें आम तौर पर यौन गुलाम के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. मानवाधिकार संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल का कहना है कि जरूरत पड़ने पर इन लड़कियों और महिलाओं को आत्मघाती हमलावर बनने के लिए भी मजबूर किया जाता है. 

जब फातिमा अपनी जिद पर अड़ी रही तो उसे एक तरफ ले जाकर यह सिखाया गया कि खुद को कैसे उड़ाया जाता है. एक आतंकवादी ने उससे कहा कि उसे अल्लाह ने एक खास काम के लिए चुना है. फिर एक दिन उसे नशीलें दवाएं दी गयीं और विस्फोट बेल्ट वाली पोशाक पहनायी गयी.

चरमपंथियों ने उसे एक छोटी लड़की के साथ सैन्य चौकी की तरफ चल कर जाने को कहा और वहां पहुंचने पर खुद को उड़ाने का आदेश दिया गया. फातिमा बताती है, "उस पल मुझे अहसास हुआ कि मुझे तो आत्मघाती मिशन पर भेजा रहा है. मेरे आसपास जो भी लोग होंगे उन सभी के पास हथियार होंगे और मेरे बचने की कोई गुंजाइश नहीं है."

फातिमा और एक अन्य लड़की को मोटरसाइकल पर बैठा कर चार चरमपंथी नाइजीरियाई सेना की एक नजदीकी चेकपोस्ट तक ले गये. चरमपंथी खुद झाड़ियों में छिप गये और ये लड़कियां सैनिकों के एक समूह की तरफ बढ़ने लगीं. एक सैनिक ने जब इन लड़कियों को देखा तो वह चिल्लाया, "रुको! कहां जा रही हो?" फातिमा ने हिम्मत की और बोली, "मैं एक छात्र हूं. मेरे शरीर पर कुछ बंधा हुआ. मुझे छूना मत."

फातिमा कहती है कि उसने सैनिकों से अपनी मातृ भाषा कनुरी की बजाय अंग्रेजी में बात की, ताकि पता चल सके कि वह पढ़ी लिखी लड़की है और इन आतंकवादियों से अलग है.

तभी पहली गोली चली. फातिमा का कहना है कि झाड़ियों में छिपे आतंकवादियों को शक होने लगा था. वे दूर से बम में धमाका करना चाहते थे और इसीलिए उन्होंने गोली चलायी. एक सैनिक तभी लड़कियों को पीछे की तरफ ले गया. कुछ देर के बाद दो आतंकवादी वहां कार्रवाई में मारे गये और दो अन्य को गिरफ्तार कर लिया गया.

इसके बाद स्पेशल पुलिस यूनिट बुलायी गयी और फातिमा के शरीर से विस्फोटक हटाये गये. फिर उसे बोर्नो प्रांत की राजधानी माइदैगुरी के सैन्य हिरासत केंद्र में लाया गया. पांच महीने तक उससे वहां पूछताछ चलती रही. सेना उससे बार-बार अपहरण और आत्मघाती मिशन के बारे में पूछती रही. इसके जरिए जहां वे आतंकवादी संगठन बोको हराम के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल करना चाहते थे, वहीं इस बात को भी सुनिश्चित कर रहे थे कि कहीं फातिमा का ब्रेनवॉश तो नहीं किया गया है. आखिरकार फातिमा को रिहा किया गया और वह माइदैगुरी के शरणार्थी शिविर में पहुंची. वह कई दिनों तक तंबू में ही छिपी रही. उसे डर था कि कहीं लोग बोको हराम का जासूस ना समझें.

फिर एक दिन बामा के उसके एक पड़ोसी ने फातिमा को पहचाना और उसे उसकी मां तक पहुंचाने में मदद की जो माइदैगुरी के ही एक अन्य शरणार्थी शिविर में रहती थी. अपनी मां से फिर मिलने पर फातिमा मुस्कराते हुए कहती है, "मैं बहुत खुशकिस्मत हूं." दो साल से मां बेटी इसी शिविर में रह रही हैं.

फातिमा को उम्मीद है कि वे जल्दी ही बामा लौट जायेंगे. अब पता नहीं वहां उनकी किस्मत में क्या लिखा होगा.

एके/ओएसजे (डीपीए)