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एक कंपनी क्यों कर रही है बिना भेदभाव के घर देने का वादा

२४ जनवरी २०१७

किसी भी शहर में रहने के लिए अच्छा घर मिलना कोई आसान बात नहीं हैं, लेकिन महज कुछ सालों पहले शुरू हुई बेंगलूरु की एक कंपनी ऐसे घर देने की बात कर रही है जहां नहीं होता भेदभाव.

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Indien Mumbai allgemeine Bilder der Stadt
तस्वीर: Getty Images/AFP/P. Paranjpe Stadtansicht Gebäude Infrastruktur City Skyline

देश में आवासीय सुविधा देना हो या खुद के लिए एक अच्छा घर खोजना हो, दोनों ही किसी चुनौती से कम नहीं हैं. लेकिन इस बीच एक हाउसिंग कंपनी ने अपने एक विज्ञापन से एक नई बहस को जन्म दे दिया है. कंपनी ने अपने विज्ञापन में कहा है यहां मिलेंगे "वे घर जहां भेदभाव नहीं होता”.

सुनने में तो ये विज्ञापन कुछ नया सा लगता है लेकिन इससे जुड़ी भावनाएं शायद वही हैं जो घर खोजते इंसान को कभी न कभी महसूस हुई होंगी. देश के लगभग हर छोटे-बड़े शहर में आज भी घर खोजने वाले को जाति, धर्म, खानपान आदि से जुड़े सवालात से गुजरना होता है. बड़े शहरों में अकेले रहने वाले लोगों को कई बार, मासांहारी और किसी खास जाति का होने के चलते घर भी नहीं दिया जाता.

विशेषज्ञों के मुताबिक मकान मालिकों द्वारा बनाए जाने वाले नियम-कानून देश की बहुसांस्कृतिक परंपरा को नुकसान पहुंचा रहे हैं क्योंकि इनमें अल्पसंख्यकों और एकल जीवन जी रहे लोगों के साथ भेदभाव किया जाता है और शहरों को तमाम बस्तियों में बांट दिया जाता है.

इस विज्ञापन को देने वाली कंपनी नेस्टअवे टेक्नोलॉजी से जुड़े ऋषि डोगरा कहते हैं कि हम साल 2017 में जी रहे हैं लेकिन अब भी हमें भेदभाव झेलना पड़ता है.

डोगरा का कहना है कि लोगों को देश के किसी भी हिस्से में घूमने की छूट होनी चाहिए. पुराने दिनों को याद करते हुए डोगरा बताते हैं कि बेंगलूरु में उन्हें भी घर खोजने में बहुत समस्या हुई थी जिसके बाद अपने चार दोस्तों के साथ मिलकर उन्होंने इस कंपनी को खड़ा किया.

देश की आर्थिक राजधानी मुंबई प्रवासी भारतीयों का सबसे पसंदीदा अड्डा रहा है, लेकिन यहां भी कैथोलिक, पारसी, बोहरा मुसलमानों आदि को इस तरह के भेदभाव का सामना करना पड़ता है. हालांकि यहां इन लोगों ने आवासीय सोसायटी बना ली हैं जो समुदाय के अन्य सदस्यों की घर खोजने में मदद करती हैं.

एक गैर लाभकारी संस्था भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की सहसंस्थापक जाकिया सोमान कहती हैं कि साल 1992-93 में हिंदू-मुस्लिम दंगों के बाद इन दोनों समुदायों के बीच तनाव अधिक पनपा है.

ऐसे ही साल 2015 में एक मुस्लिम महिला ने फेसबुक पर एक ग्रुप बनाया था, इंडियंस अगेंस्ट डिसक्रिमिनेशन. इस महिला को सिर्फ इसके धर्म के चलते फ्लैट खाली करने का कह दिया गया था.

सोमान कहती हैं कि जब बात रहने की आती है तो हम काफी अलग-थलग पड़ जाते हैं और अब तो पूरा शहर ही समुदायों में विभाजित हो रहा है जो हमारे सामाजिक बंधन को कमजोर करता है.

हालांकि स्थानीय अदालतों ने कई मामलों में इस तरह के भेदभाव के खिलाफ फैसला दिया है लेकिन इन पर भी कई विरोधाभासी फैसले आते रहे हैं.

साल 2005 में देश की शीर्ष अदालत ने अहमदाबाद की पारसी आवासीय सोसायटी के पक्ष में दिए फैसले में कहा था कि वह पारसियों की सदस्यता को सीमित कर सकती है साथ ही दूसरों को शामिल ना करने के लिए भी स्वतंत्र है. रियल एस्टेट मामलों के वकील विनोद संपत कहते हैं कि संविधान बराबरी के अधिकारों की बात करता है लेकिन ये आवासीय बोर्ड और इनसे जुड़ी संस्थाएं अपने दिशा-निर्देश तैयार कर सकते हैं जो भेदभाव भरे हो सकते हैं.

महाराष्ट्र की आवास नीति मसौदे के मुताबिक, आवास संबंधी किसी मसले पर भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए.

सरकारी अधिकारियों के मुताबिक संविधान में भेदभाव के खिलाफ सुरक्षा दी गई है इसलिए ऐसे किसी खास खंड की जरूरत नहीं है, फिर भी ये है.

एए/वीके (रॉयटर्स)