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समाज

अदालत बदल रही है समाज का रवैया

मारिया जॉन सांचेज
११ अक्टूबर २०१७

सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए कहा है कि नाबालिग यानि अठारह साल से कम उम्र की पत्नी के साथ शारीरिक संबंध बनाने को भी बलात्कार ही माना जाएगा. कुलदीप कुमार का कहना है कि इस फैसले के दूरगामी प्रभाव होंगे.

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Indien Kinderhochzeit
तस्वीर: AP

अगर शादी के एक साल के भीतर कोई नाबालिग पत्नी बलात्कार के बारे में शिकायत करती है तो पुलिस को उसका संज्ञान लेना होगा. यह फैसला सुना कर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने दशकों से चले आ रहे उन कानूनी अंतर्विरोधों को दूर करने की कोशिश की है जिन्हें जमीनी हकीकत को स्वीकार करके चलने के नाम पर बरकरार रखा जा रहा है. दरअसल 2013 तक यौन संबंध के लिए सहमति की न्यूनतम आयु सोलह वर्ष थी. वर्ष 2013 में इसे इस आधार पर बढ़ा कर अठारह वर्ष कर दिया गया था कि सोलह वर्ष की उम्र में लड़की इतनी परिपक्व नहीं होती कि वह यौन संबंधों के लिए सहमति दे सके. उधर बालविवाह संबंधी कानून में भी लड़कियों के लिए न्यूनतम आयु अठारह वर्ष और लड़कों के लिए इक्कीस वर्ष निर्धारित की गयी है. लेकिन भारतीय दंड संहिता में एक अपवाद भी रखा गया था और वह यह कि यदि कोई पति पंद्रह साल या उससे अधिक की आयु की पत्नी के उसकी सहमति के साथ या बगैर यौन संबंध बनाता है तो उसे बलात्कार की श्रेणी में नहीं रखा जाएगा.

दो करोड़ तीस लाख बाल वधू

सरकार की भी इस अपवाद के साथ सहमति थी. अदालत के सामने उसकी दलील थी कि हालांकि बालविवाह अपराध है, लेकिन हकीकत यह है कि भारत में दो करोड़ तीस लाख बाल वधू हैं इसलिए पति द्वारा बाल वधू के साथ संबंध बनाने पर प्रतिबंध लगाना व्यावहारिक एवं उचित नहीं होगा.

इन दिनों सुप्रीम कोर्ट वैवाहिक बलात्कार के संबंध में दायर याचिकाओं पर भी सुनवाई कर रहा है. पिछले अगस्त में केंद्र सरकार ने उसके सामने हलफनामा दाखिल करके कहा था कि वैवाहिक बलात्कार को बलात्कार नहीं माना जा सकता यानि पत्नी की इच्छा हो या न हो, पति का जब भी उसके साथ संभोग करने का मन हो, वह उसके लिए स्वतंत्र है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार दुहराया है कि आज के फैसले का वैवाहिक बलात्कार वाले मुकदमे से कोई संबंध नहीं है और वह एक पृथक मामला है, लेकिन स्पष्ट है कि इस फैसले का उस मुकदमे में अंततः होने वाले फैसले पर असर जरूर पड़ेगा क्योंकि अब इस पूरे मसले पर एक कानूनी फ्रेमवर्क बनता जा रहा है और सुप्रीम कोर्ट के चिंतन में भी स्पष्टता आती जा रही है.

सरकार की दकियानूसी सोच

दिसंबर 2012 में हुए निर्भया बलात्कार कांड के बाद देश भर में बलात्कार के मुद्दे पर जागरूकता बढ़ी है और अदालतें भी इस मुद्दे को लेकर अधिक संवेदनशील हुई हैं. महिला आंदोलन के भीतर उपस्थित विभिन्न विचारधाराओं और समूहों के बावजूद इस मुद्दे पर लगभग सभी एकमत हैं कि स्त्री का अपनी देह पर संपूर्ण अधिकार है और उसे कभी भी और किसी को भी - चाहे वह पति ही क्यों न हो - यौन संबंध के लिए "ना" कहने की आजादी है. स्त्री की सहमति के बिना जबर्दस्ती यौन संबंध बनाना बलात्कार ही है.

दुर्भाग्य से अभी सरकारों की सोच इस मामले में पीछे है. लेकिन जल्दी ही उसे भी समय के साथ बदलना होगा. सामाजिक-सांस्कृतिक या धार्मिक परंपरा के नाम पर यौन संबंधों के मामले में दकियानूसी रवैया अब अधिक दिन नहीं चल पाएगा. सुप्रीम कोर्ट इस दिशा में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, यह संतोष का विषय है.