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जोर शोर से उठे महिला के कानूनी हक की बात

८ अगस्त २०१५

महिलाएं अगर अपने हक की बात करें तो उन पर फेमिनिस्ट या एक्टिविस्ट के लेबल लगाकर नीचा दिखाने की बजाए, अक्ल से काम लें. जिन अधिकारों को देश का कानून सुनिश्चित करता है, उन पर जब और जहां सवाल उठे, सबको आवाज उठानी चाहिए.

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तस्वीर: Fotolia/Elnur

भारत में केंद्रीय प्रशासनिक सेवा में चुना जाना ज्यादातर मध्यवर्गीय परिवार के बच्चों का सपना सच होने जैसा होता है. कई बार तो यह उन सफल प्रतिभागियों से भी अधिक उनके परिवारों के लिए हर्ष और गौरव की वजह होता है क्योंकि इससे समाज में उनके परिवार का रूतबा बढ़ता है. इस बार तो यूपीएससी की परीक्षा में पहले चार स्थान महिलाओं को ही मिले. जाहिर है कि इस सेवा से जुड़े सम्मान और अधिकार के कारण ही इसकी इतनी पूछ है, साथ ही इसमें कई दूसरे पेशों की तरह समाज को सीधे तौर पर फायदा पहुंचाने का अवसर भी मिलता है.

इस प्रतिष्ठित सेवा में भर्ती हुईं ट्रेनी महिला आईएएस रिजु बाफना को जब अदालती प्रक्रिया में पड़कर वे हक भी नहीं मिले जो देश की हर महिला को मिलने चाहिए, तो हैरानी होती है. यौन उत्पीड़न की शिकायत पर बयान दर्ज कराने अदालत पहुंची बाफना ने परेशान होकर अपने फेसबुक पोस्ट में यहां तक लिख डाला कि उन्हें जिन परिस्थितियों में बयान दर्ज कराना पड़ा उससे ऐसा लगा कि एक बार फिर उनके साथ उत्पीड़न हुआ. अव्वल तो महिला विरोधी अपराधों के बढ़ते ग्राफ को रोकने की हर संभव कोशिश हो, दूसरे किसी महिला द्वारा अपराध की शिकायत दर्ज कराने और कानूनी कार्यवाही के दौरान संवेदनशीलता बरती जाए.

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ऋतिका पाण्डेय, डॉयचे वेलेतस्वीर: DW/P. Henriksen

दिसंबर 2012 के निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद से भारतीय कानून में नए प्रावधान लाए गए. बलात्कार के अलावा कई दूसरे गंभीर अपराधों को यौन उत्पीड़न के दायरे में लाया गया. कानून का बनना इस दिशा में एक ठोस कदम तो है लेकिन उसकी जानकारी और इस्तेमाल करने की सहूलियत होना भी बेहद जरूरी है. उदाहरण के लिए, महिलाओं के साथ पुलिस थाने में हिंसा और यौन अपराधों की भी खबरें आती रहती हैं. समाज की रक्षक पुलिस सेवा में भी आखिर इसी समाज के लोग काम करते हैं, तो जाहिर है उनमें भी कुछ गलत प्रवृति वाले लोग हो सकते हैं. ऐसे में एक महिला को भी पता होना चाहिए कि पुलिस से जुड़े उसके क्या कानूनी अधिकार हैं. जैसे कि एक महिला को सूर्यास्त के बाद गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, या अगर हिरासत में लेना जरूरी हो तो भी महिला को रात भर रखने की अलग व्यवस्था की जानी चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय का निर्देश है कि जब भी किसी जज के सामने महिला को पहली बार पेश किया जा रहा हो, उस जज को महिला से पूछना चाहिए कि उसे पुलिस हिरासत में कोई बुरा बर्ताव तो नहीं झेलना पड़ा.

बचपन से ही लड़कियों को महिलाओं के सामाजिक तौर पर सहनशील, शर्मीले और त्याग करने वाली होने का आदर्श दिखाया जाता है. इन्हीं आदर्शों के भार तले दबी वह लड़की बड़ी होकर कई बार अपने कानूनी अधिकारों की जानकारी होते हुए भी उनका इस्तेमाल करने से कतराती है. यह भी सच है कि बहुतेरी महिलाओं को तो यह भी पता नहीं होता कि उनके साथ जो हो रहा है वह देश के कानून की नजर में गलत है. जब वे समझेंगीं कि उनके साथ हिंसा या अत्याचार हुआ है और इससे बचाव के लिए कोई कानूनी व्यवस्था भी है, तभी तो अपनी सुरक्षा और हित सुनिश्चित कर पाएंगी. कुछेक पढ़ी लिखी और सशक्त महिलाओं की ओर से ही सही लेकिन कम से कम महिलाओं के कानूनी हक के बारे में आवाजें तो उठ रही हैं. जब ऐसी कई सारी ध्वनियां मिलेंगी तभी तो एक दिन देश में महिला अधिकारों का सुखद नाद भी सुनाई देगा.

ब्लॉग: ऋतिका राय

एडिटर, डीडब्ल्यू हिन्दी
ऋतिका पाण्डेय एडिटर, डॉयचे वेले हिन्दी. साप्ताहिक टीवी शो 'मंथन' की होस्ट.@RitikaPandey_