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अब टूट रही है उम्मीदों की इमारत

२२ अप्रैल २०१४

मीनू अख्तर एक साल से नहीं सो पाई हैं. हल्की सी भी आवाज होती है, तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठती हैं कि कहीं फैक्ट्री की इमारत तो नहीं गिर गई. वह पहली दूसरी मंजिल पर जाने से कतराती हैं.

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तस्वीर: DW/C. Meyer

बांग्लादेश की राजधानी ढाका में पिछले साल राना प्लाजा इमारत ढहने के बाद से 23 साल की मीनू अख्तर अपने जज्बात काबू में नहीं कर पातीं. जब भी वह अपने मंगेतर के बारे में सोचती हैं, आंसू बह निकलते हैं.

पिछले साल जब नौमंजिला इमारत गिरी थी, तो वह पतलून की कटिंग कर रही थीं. उन्हें याद है कि एक इतालवी कंपनी से अच्छा खासा ऑर्डर आया था. उनका मंगेतर शाहीन इमारत की चौथी मंजिल पर दूसरी तरफ काम कर रहा था. 11 घंटों की शिफ्ट शुरू करने से पहले दोनों की छोटी सी मुलाकात हुई थी.

Erster Jahrestag des Einsturzes der Textilfabrik in Bangladesch (Bildergalerie)
जहां कभी काम होता थातस्वीर: DW/C. Meyer

मीनू बताती हैं, "अचानक जबरदस्त आवाज आई और चारों तरफ धुआं फैल गया. मेरे सभी साथी जान बचाने भागे. उस वक्त मैंने देखा कि शाहीन मेरा इंतजार कर रहा है, ताकि हम दोनों साथ में निकल सकें." दो महीने बाद जब मीनू अस्पताल में टूटी हड्डियों और कान का इलाज करा रही थीं, किसी ने उसे बताया कि शाहीन नहीं बच सका. उसकी लाश को मुश्किल से इमारत के मलबे से निकाला जा सका. शाहीन उन 1,138 लोगों में था, जो इमारत गिरने से मारे गए. करीब 2,000 लोग घायल हुए.

मीनू कहती हैं, "मैं कई दिनों तक इस बात का यकीन नहीं कर पाई कि अब वह इस दुनिया में नहीं है. हमने क्या कुछ प्लान किया था. हम तो शादी रजिस्टर करने वाले दफ्तर भी गए थे. लेकिन हमें अपने परिवारों की रजामंदी का इंतजार था." वह तय नहीं कर पा रही है कि क्या वह खुशकिस्मत है कि बच गई या बदकिस्मत कि खुद तो बच गई लेकिन मंगेतर नहीं बच पाया.

बांग्लादेश में अब तक के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे के साल भर बाद उद्योग जगत में मामूली बदलाव तो आए हैं लेकिन पीड़ितों के जख्म नहीं भर पाए हैं. राना प्लाजा से कुछ ही दूर पर एक कम्युनिटी हॉल में मीनू को मनोवैज्ञानिक मदद दी जा रही है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन और ब्रिटिश संस्था चैरिटीएड उनके अलावा 20 पीड़ितों का यहां इलाज कर रहा है.

Erster Jahrestag des Einsturzes der Textilfabrik in Bangladesch (Bildergalerie)
बिछुड़े ऐसे कि फिर मिल न पाएतस्वीर: DW/C. Meyer

डॉक्टर उबैदुल इस्लाम मुन्ना का कहना है, "राना प्लाजा के पीड़ितों का यह चौथा दल है, जिसका हम इलाज कर रहे हैं. हर कोई बुरी तरह परेशान है. ज्यादातर रात में सो नहीं पाते. वे छोटी छोटी आवाज पर चौंक पड़ते हैं. एक बार तो हमने जब लाउडस्पीकर चलाया, तो एक लड़की बेहोश हो गई. कई अपनी याददाश्त खो चुके हैं." डॉक्टरों का कहना है कि कई तो बहुमंजिला इमारतों में जा ही नहीं पाते.

हादसे के बाद सरकार ने इन फैक्ट्रियों में काम करने वालों की न्यूनतम मजदूरी बढ़ा दी है. यहां दुनिया के कुछ बड़े ब्रांडों के लिए सस्ते में कपड़े तैयार किए जाते हैं. लेकिन 77 फीसदी इजाफे के बाद भी मजदूरों का वेतन सिर्फ 68 डॉलर प्रति महीना ही हुआ है. फैक्ट्रियों की निगरानी के लिए नए इंस्पेक्टर नियुक्त किए जा रहे हैं.

ट्रेड यूनियन नेता बहरीन सुल्तान का कहना है कि अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद ऐसा हो पाया है, "लेकिन अभी लंबा रास्ता बाकी है. हमारे मजदूरों को अभी भी दुनिया में सबसे कम मजदूरी मिलती है. वे 10-12 घंटे काम करते हैं." पश्चिमी कंपनियों को बदनामी का खतरा था, लिहाजा उन्होंने काम करने के तरीकों और स्थिति पर सवाल उठाए. हादसे के बाद दर्जन भर फैक्ट्रियां बंद भी कर दी गईं. पश्चिमी कंपनियों ने करीब 1.5 करोड़ डॉलर का चंदा भी दिया, जिससे मजदूरों की स्थिति बेहतर की जा सके. मजदूरों को मुआवजा भी मिला.

लेकिन उनका क्या, जो अब कभी काम नहीं कर पाएंगे. यूनुस अली सरदार 44 साल के हैं. वे राना प्लाजा के पास ही थे, जब इमारत गिरी और वे भाग कर आए कि लोगों को बचा सकें. उन्होंने तीन लोगों को बचाया लेकिन जब तक वह चौथे तक पहुंचते एक खंबा उन पर गिर गया और उनके हाथ पैर बेकार हो गए. अब उन्हें जीवन बिस्तर पर बिताना है.

चूंकि वह फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूर नहीं थे, लिहाजा उन्हें मुआवजा भी नहीं मिलेगा. अस्पताल में किसी तरह इलाज करा रहे सरदार बताते हैं, "मेरे जीवन भर की कमाई और बचत खर्च हो गई. मुझे अपने बेटे को स्कूल से निकालना पड़ा."

एजेए/एएम (एएफपी)