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कला में भारत की बढ़ती पूछ

५ जनवरी २०१०

देर से ही सही भारतीय ललित कलाएं दुनिया के कला जगत में अपनी जगह बना रही हैं. शास्त्रीय संगीत और नृत्य से शुरुआत तो हुई पर अब पेंटिंग की दुनिया में भी भारत को उम्मीद भरी निगाहों से देखा जा रहा है.

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आधुनिक भारतीय पेंटिंग का इतिहास लगभग डेढ़ शताब्दी पुराना है जब मद्रास , कलकत्ता , मुंबई और लाहौर में आर्ट स्कूल खोले गए. तब की शुरुआत को अपेक्षित गरिमा और गंभीरता मिली राजा रवि वर्मा के काम से. वह सही अर्थों में भारतीय पेंटिंग के जन्मदाता कहे जा सकते हैं. केरल के किली मन्नूर गांव में 29 अप्रैल 1848 को जन्मे राजा रवि वर्मा के आलोचकों ने भले ही उनकी ‘ कैलेंडर आर्टिस्ट' कहकर आलोचना की हो लेकिन पौराणिक कथाओं के आधार पर बने चित्र व पोट्रेट उनकी पहचान बन गए.
19वीं शताब्दी

हेवेल और अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने 19वीं सदी के आख़िरी दशक में गंभीर और उल्लेखनीय काम किया , जिसे ‘ बंगाल स्कूल ' के नाम से भी संबोधित किया गया. बाद में रवीद्रनाथ टैगोर , अमृता शेरगिल से होती हुई यह परंपरा मक़बूल फ़िदा हुसैन, सैयद हैदर रज़ा, नारायण श्रीधर बेन्द्रे, फ़्रांसिस न्यूटन सूजा, वी.एस. गायतोंडे, गणेश पाइन, केजी सुब्रह्मण्यम, ग़ुलाम मोहम्मद शेख़, केसीए पाणिक्कर, सोमनाथ होर, नागजी पटेल, मनु पारेख, लक्ष्मा गौड़, विकास भट्टाचार्य, मनजीत बावा, रामकिंकर बैज, सतीश गुजराल, जगदीश स्वामीनाथन, रामकुमार और कृष्ण रेड्डी तक पहुंची.

ज़ाहिर है इस दौर में भारतीय कला ने न सिर्फ़ नए मानक गढ़े , बल्कि विश्व परिप्रेक्ष्य में अपना सार्थक हस्तक्षेप भी किया. विदेशों में जहां पहले भारतीय पारंपरिक कला की मांग थी और उनका ही बाज़ार था. अब गणित उलट रहा है. विदेशी कला बाज़ार में भारतीय कलाकारों की जगह बनी है. ऐसे में भारतीय कला के सामने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में क़ायम रहने की चुनौती है , बल्कि अपने लिए बाज़ार की तलाश भी करनी है.

कला और बाज़ार

Der indische Künstler Maqbool Fida Hussain
मशहूर और विवादित चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैनतस्वीर: AP

बाज़ार शब्द से वैसे भी कला-संस्कृति क्षेत्रों के लोग चौंक से उठते हैं. न जाने क्यों यह माना जाने लगा है कि बाज़ार और सौंदर्य शास्त्र एक दूसरे के विरोधी हैं , लेकिन देखा जाए तो चित्र बनना और बेचना एक-दूसरे से जुड़े काम र्हैं. इनमें विरोध का कोई रिश्ता नहीं दिखता. लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि इस रिश्ते के चलते क्या कला तो प्रभावित नहीं हो रही ? उसकी स्वाभाविकता एवं मौलिकता तो नष्ट नहीं हो रही , या बाज़ार के दबाव में कलाकार की सृजनशीलता तो प्रभावित नहीं हो रही ?

वैसे भी कलाओं के प्रति आम भारतीय समाज में किसी प्रकार का उत्साह नहीं दिखता. बहुत हद तक समझ का भी अभाव दिखता है. इसलिए प्रायोजित चर्चाओं के अलावा कला के बजाय कलाकारों के व्यक्तिगत जीवन के बारे में ज़्यादा बातें छापी और कहीं जाती हैं. अंग्रेज़ी अख़बार जो अकसर इस प्रकार के कला के रूझानों की बात तो करते हैं, पर उनमें भी कला की समीक्षा, उसके रचनाकर्म या विश्व कला परिदृश्य में उस कृति की जगह के बजाय कलाकार के खान-पान की पसंदों उसके दोस्तों-दुश्मनों , प्रेमिकाओं , कपड़ों की समीक्षा ज़्यादा रहती है.

मक़बूल फ़िदा हुसैन को लेकर ऐसी चर्चाएं अकसर बाज़ार को गरमाए रहती हैं. ‘ माधुरी प्रसंग ' को इस नज़रिए से देखा जा सकता है. आज ऐसे कलाकार कम दिखते हैं जो अपने कलालोक में डूबे रहते हों - प्रचार पाना या प्रचार को प्रायोजित कराना कलाकार की विवशता बनता जा रहा है.

Bollywood Schauspieler Madhuri Dixit
माधुरी पर फ़िदा फ़िदातस्वीर: AP

कुछ साल पहले कलाकार अंजली इला मेमन ने अपने जन्मदिन पर आयोजित कार्यक्रम में एक स्त्री के धड़ के रूप में बना केक काटा. इससे वे क्या साबित करना चाहती हैं , वे ही जाने पर ‘ प्रचार की भूख ' इससे साफ़ झांकती है. कला प्रदर्शनियों के उद्घाटन में भी कभी-कभी ऐसे दृश्य दिखते हैं , जैसे कोई पार्टी हो. इन पार्टियों में हाथ में जाम लिए सुंदर कपड़ों में सजे-सधे कला प्रेमियों की पीठ ही दीवार पर टंगी कलाकृतियों की ओर रहती है.

भारतीय कला गहरी

Zeichen des Siegens
अर्थहीन हो गई है पश्चिम की कलातस्वीर: DW

इस उत्सवधर्मिता ने नए रूप रचे हैं. पत्र-पत्रिकाओं का रुझान भी कला संबंधी गंभीर लेखन की बजाय हल्के-फुल्के लेखन की ओर है. कुछ कलाकार मानते हैं कि पश्चिम में भारतीय कलाकारों की बढ़ती मांग के पीछे प्रवासी भारतीयों का एक बड़ा वर्ग भी है , जो दर्शक ही नहीं कला का ख़रीददार भी है.

लेकिन सैयद हैदर रज़ा जैसे कलाकार इस मांग के दूसरे कारण भी बताते हैं. वे मानते हैं कि पश्चिम की ज़्यादातर कला इस समय कथ्यविहीन हो गई है. उनके पास कहने को बहुत कुछ नहीं है. प्रख्यात कवि आलोचक अशोक वाजपेयी के शब्दों में, “ स्वयं पश्चिम में आधुनिकता थक-छीज गई है और उत्तर आधुनिकता ने पश्चिम को बहुकेंद्रिकता की तलाश के लिए विवश किया है. पश्चिम की नज़र फिर इस ओर पड़ी है कि भारत सृर्जनात्मकता का एक केंद्र है. ”

सही अर्थों में भारतीय कला में भी अपनी जड़ों का अहसास गहरा हुआ है और उसने निरंतर अपनी परंपरा से जुड़कर अपना परिष्कार ही किया है. सो भारतीय समाज में कला की पूछताछ बढ़ी है. ज़्यादा सजगता और तैयारी के साथ चीज़ों को नए नज़रिए से देखने का रुझान बढ़ा है. कला का फलक बहुत विस्तृत हुआ है. इतिहास , परंपरा से लेकर मन के झंझावतों की तमाम जिज्ञासाएं कैनवास पर जगह पा रही हैं.

बाज़ारवाद के ताज़ा दौर ने दुनिया की खिड़कियां खोली हैं. इसके नकारात्मक प्रभावों से बचकर यदि भारतीय कला अपनी जिद और जिजीविषा को बचाए और बनाए रख सकी तो उसकी रचनात्मकता के प्रति सम्मान बढ़ेगा ही और वह सकारात्मक ढंग से अभिव्यक्ति पा सकेगी.

सौजन्यः संजय द्विवेदी (वेबदुनिया)

संपादनः ए कुमार