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कावेरी पर फैसले से निकलेगी पानी के बंटवारे की राह

प्रभाकर मणि तिवारी
१६ फ़रवरी २०१८

क्या कावेरी जल बंटवारे के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से तीस्ता नदी के पानी पर बांग्लादेश के साथ समझौते की राह निकलेगी? कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी नदी का पानी लंबे समय से झगड़े की जड़ रहा है.

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तस्वीर: DW/A. Chatterjee

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बांग्लादेश दौरों और बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना के बीते साल के भारत दौरे के बावजूद तीस्ता नदी के पानी पर विवाद दोनों देशों के संबंधों की राह में रोड़ा बना हुआ है. इसके लिए ममता बनर्जी के अड़ियल रवैये को जिम्मेदार माना जाता है. ममता बनर्जी के विरोध के चलते ही अब तक तीस्ता और गंगा बैराज पर प्रस्तावित समझौते परवान नहीं चढ़ सके हैं.

आखिर कावेरी जल विवाद है क्या?

कावेरी जल विवाद में फैसले से कर्नाटक राहत में

राज्य में सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस की दलील है कि तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे पर होने वाले समझौते से जहां उत्तर बंगाल में खेती पर प्रतिकूल असर पडने का अंदेशा है, वहीं गंगा बैराज योजना से दक्षिण बंगाल के कई जिलों में बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा. राज्य सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री कहते हैं कि मुख्यमंत्री कई बार इन समस्याओं को केंद्र के सामने उठा चुकी हैं. लेकिन वहां से अब तक कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला है.

शेख हसीना के साथ बेहतर संबंधों के बावजूद ममता इस मुद्दे पर राज्य के हितों की कीमत पर कोई समझौता करने को तैयार नहीं हैं. बीते साल शेख हसीना के भारत दौरे के दौरान भी ममता ने राज्य के हितों का हवाला देते हुए तीस्ता समझौते को उसके मौजूदा प्रारूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया था. तीस्ता समझौता नहीं होने के विरोध में बांग्लादेश सरकार ने वहां पद्मा नदी से आने वाली हिल्सा मछलियों के निर्यात पर भी लंबे अरसे तक रोक लगा रखी थी. इसके बावजूद ममता टस से मस नहीं हुईं.

ममता की दलील

तीस्ता के पानी के बंटावरे का मुद्दा तृणमूल कांग्रेस के लिए एक अहम और संवेदनशील मुद्दा रहा है. बंगाल के सिंचाई मंत्री राजीव बनर्जी कहते हैं, "यह मुद्दा स्थानीय लोगों के हितों से जुड़ा है. हितों की बलि देकर कोई समझौता नहीं हो सकता." गंगा, ब्रह्मपुत्र और मेघना के बाद तीस्ता भारत और बांग्लादेश होकर बहने वाली चौथी सबसे बड़ी नदी है.

सिक्किम की पहाड़ियों से निकल कर भारत में लगभग तीन सौ किलोमीटर का सफर करने के बाद यह नदी बांग्लादेश पहुंचती है. वहां इसकी लंबाई 121 किलोमीटर है. बांग्लादेश के 14 फीसदी इलाके सिंचाई के लिए इसी नदी पर निर्भर हैं. इससे वहां की 7.3 फीसदी आबादी को प्रत्यक्ष रोजगार मिलता है. दरअसल, वर्ष 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बांग्लादेश दौरे के समय ही इस समझौते की तैयारी हो गई थी. लेकिन आखिरी मौके पर ममता ने अड़ंगा डाल दिया. उसी समय से यह समझौता दोनों देशों के आपसी संबंधों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा रहा है.

ममता की दलील है कि पानी के बंटवारे से राज्य के किसानों को भारी नुकसान होगा. वह कहती हैं, "उत्तर बंगाल के किसानों की आजीविका तीस्ता के पानी पर निर्भर हैं. पानी की कमी से लाखों लोग तबाह हो सकते हैं." वैसे, ममता कहती रही हैं कि बातचीत के जरिए तीस्ता के मुद्दे को हल किया जा सकता है. बावजूद इसके मौजूदा राजनीतिक समीकरणों को ध्यान में रखते हुए इसके आसार कम ही हैं. दूसरी ओर, शेख हसीना भी ममता की राजनीतिक मजबूरी समझती हैं. लेकिन उनकी अपनी भी मजबूरी है. वह चाहती हैं कि भारत सरकार आम सहमति से इस समस्या के समाधान की दिशा में ठोस पहल करे.

पुराना है विवाद

तीस्ता नदी के पानी पर विवाद देश के विभाजन के वक्त से ही चला आ रहा है. तीस्ता के पानी के लिए ही ऑल इंडिया मुस्लिम लीग ने वर्ष 1947 में सर रेडक्लिफ की अगुवाई में गठित सीमा आयोग से दार्जिलिंग और जलपाईगुड़ी को तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करने की मांग उठाई थी. लेकिन कांग्रेस और हिंदू महासभा ने इसका विरोध किया था. तमाम पहलुओं पर विचार के बाद सीमा आयोग ने तीस्ता का ज्यादातर हिस्सा भारत को सौंपा था. उसके बाद वर्ष 1971 में पाकिस्तान से आजाद होकर बांग्लादेश के गठन के बाद पानी का मुद्दा दोबारा उभरा. वर्ष 1972 में इसके लिए भारत-बांग्लादेश संयुक्त नदी आयोग का गठन किया गया.

शुरूआती दौर में दोनों देशों का ध्यान गंगा, फरक्का बांध और मेघना व ब्रह्मपुत्र नदियों के पानी के बंटवारे पर ही केंद्रित रहा. लेकिन वर्ष 1996 में गंगा के पानी पर हुए समझौते के बाद तीस्ता के पानी के बंटवारे की मांग ने जोर पकड़ा. वर्ष 2010 में दोनों देशों के बीच समझौते के अंतिम प्रारूप पर सहमति भी बन गई. इसके अगले साल यानि 2011 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के ढाका दौरे के दौरान दोनों देशों के राजनीतिक नेतृत्व के बीच इस नदी के पानी के बंटवारे के एक नए फॉर्मूले पर सहमति बनी. लेकिन ममता के विरोध की वजह से उस पर अमल नहीं हो सका.  

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ममता के विरोध की वजह यह है कि समझौते के तहत किस देश को कितना पानी मिलेगा, यह साफ नहीं है. जानकारों का कहना है कि समझौते के प्रारूप के मुताबिक, बांग्लादश को तीस्ता का 48 फीसदी पानी मिलना है. लेकिन ममता की दलील है कि वैसी स्थिति में उत्तर बंगाल के छह जिलों में सिंचाई व्यवस्था पूरी तरह ठप हो जाएगी. बंगाल सरकार ने एक विशेषज्ञ समिति से अध्ययन कराने के बाद बांग्लादेश को मॉनसून के दौरान नदी का 35 या 40 फीसदी पानी उपलब्ध कराने और सूखे के दौरान 30 फीसदी पानी देने का प्रस्ताव रखा था. लेकिन बांग्लादेश को यह मंजूर नहीं था. इसकी वजह यह है कि वहां दिसंबर से अप्रैल तक तीस्ता के पानी की जरूरत सबसे ज्यादा होती है. गर्मी के सीजन में उन इलाकों को भारी सूखे का सामना करना पड़ता है.

क्या निकलेगी राह

तो अब क्या कावेरी जल विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद तीस्ता व गंगा नदियों पर प्रस्तावित समझौते की राह भी साफ हो सकती है? इस सवाल पर राज्य सरकार की दलील है कि यह दोनों मामले अलग हैं. कावेरी विवाद देश के दो राज्यों के बीच था जबकि तीस्ता और गंगा बैराज समझौते का मामला पड़ोसी देश से जुड़ा है.

अंतरराष्ट्रीय मामलों के विशेषज्ञ प्रोफेसर बीएन मंडल कहते हैं, "कावेरी विवाद की तर्ज पर ममता कभी इन समझौतों के लिए राजी नहीं होंगी. केंद्र के साथ राज्य सरकार की लगातार बढ़ती खाई भी इन समझौतों की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है." पर्यवेक्षकों का कहना है कि ममता की दलीलों में कुछ दम जरूर है. लेकिन केंद्र के साथ उनका छत्तीस का आंकड़ा ही फिलहाल इन समझौतों की राह में सबसे बड़ी बाधा है. ऐसे में, यह समस्या अदालत से नहीं बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर बातचीत से ही सुलझ सकती है.