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क्या भारत तय करेगा कॉमनवेल्थ की कामयाबी?

निखिल रंजन
१८ अप्रैल २०१८

दुनिया पर से औपनिवेशिक ब्रिटेन का साया उठने के बाद कॉमनवेल्थ की शुरुआत की गई. यूरोपीय संघ से बाहर होने की घड़ी करीब आने के बाद एक बार फिर ब्रिटेन के लिए इसका महत्व बढ़ गया है. पर क्या दुनिया अंपायर 2.0 को अहमियत देगी?

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UK Modis Staatsbesuch in London | Treffen mit Ministerpräsidentin Theresa May
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/A. Pezzali

कॉमनवेल्थ के 53 देशों में दुनिया की करीब एक तिहाई आबादी रहती है. सदस्य देशों में लोकतंत्र, स्थिरता, सुरक्षा और समृद्धि के लिए काम करना इसका मकसद माना गया है. कॉमनवेल्थ के सदस्य आपास में कारोबार करते हैं और वे दूसरे समूहों में भी शामिल हैं जहां उनकी हिस्सेदारी ज्यादा भी होती है. खुद ब्रिटेन के लिए ही अगर देखें तो उसके निर्यात में कॉमनवेल्थ देशों की हिस्सेदारी महज 8-9 फीसदी है जबकि यूरोपीय संघ की करीब 44 फीसदी.

अब जबकि ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर होगा तब उसके लिए कॉमनवेल्थ की जरूरत समझी जा सकती है. ब्रिटेन की कोशिश है कि वह अपने पास मौजूद दूसरे विकल्पों के बारे में सोचे कॉमनवेल्थ उसके लिए मददगार हो सकता है. चर्चा हो रही है कि इसे कारोबार के लिहाज से अहम बनाया जाए. बीते 20 सालों में यह पहली बार है जब कॉमनवेल्थ देशों के राष्ट्रप्रमुखों के सम्मेलन की मेजबानी ब्रिटेन कर रहा है, बहुत से लोग इसे ब्रेक्जिट से भी जोड़ कर देख रहे हैं हालांकि कॉमनवेल्थ की बैठक के एजेंडे में यह मुद्दा शामिल नहीं है.

UK Modis Staatsbesuch in London | Treffen mit Prinz Charles
तस्वीर: Reuters/H. McKay

विशेषज्ञों में इसे लेकर बहस हो रही है कि क्या कॉमनवेल्थ ब्रिटेन की उम्मीदें पूरी कर सकेगा. इसके सदस्य देशों में ही इसे लेकर बहुत उत्साह नजर नहीं आता. बहुत से देश ब्रिटेन के औपनिवेशिक अतीत को भी इसका हिस्सा मानते हैं. लंदन के किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय संबंध पढ़ाने वाले प्रोफसर हर्ष वी पंत कहते हैं, "औपनिवेशिक दौर में ब्रिटेन की गुलामी झेल चुके देशों में इसे लेकर एक हिचक तो है ही, उन्हें लगता है कि वो क्यों एक बार फिर उस देश के नेतृत्व में काम करें जिसने उन पर राज किया." हालांकि एक सच यह भी है कि इन देशों का आपसी कारोबार करीब 800 अरब अमेरिकी डॉलर का है. कॉमनवेल्थ के सदस्य देशों को आपस में मुक्त रूप से व्यापार करने की सुविधा मिलती है और यह देश एक दूसरे के संसाधनों का लाभ उठाते हैं.

कई लोगों का मानना है कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं की भूमिका बढ़े तो यह गुट अपने लिए अहमियत हासिल कर सकता है. भारत, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा जैसी तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं के साथ साझीदारी इसे सफल बना सकती है. ब्रिटेन को भी शायद इसका कुछ अंदाजा है. 

भारत को इस बैठक में खास अहमियत दी गई है. भारतीय प्रधानमंत्री को बैठक में शामिल होने का न्यौता खुद महारानी ने प्रिंस चार्ल्स के हाथों भेजा. इतना ही नहीं नरेंद्र मोदी अकेले नेता हैं जिनके साथ ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने इस दौरान द्विपक्षीय बातचीत की है. कई विशेषज्ञ तो यह भी मान रहे हैं कि अगर कॉमनवेल्थ में ऊर्जा भरनी है तो भारत जैसे देशों को निर्णायक भूमिका में आना होगा. प्रोफेसर हर्ष वी पंत ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "कॉमनवेल्थ को अगर सफल बनाना है तो भारत को इसमें बड़ी भूमिका निभानी होगी. उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में भारत प्रमुख है और इस वक्त उसके बगैर इसकी सफलता की बात नहीं सोची जा सकती."

कॉमनवेल्थ का नेतृत्व पारंपरिक रूप से ब्रिटेन की महारानी के हाथ में होता है और अब जब कि वो 92 साल की हो चुकी हैं तो वहां भी उनके उत्तराधिकारी की बात सोची जा रही है.

कॉमनवेल्थ की समस्या यह है कि बीते सात दशकों में अंतरराष्ट्रीय कारोबार की दुनिया में यह उतना महत्व हासिल नहीं कर सका जितना शायद सोचा गया था. खुद भारत की ही इसमें दिलचस्पी बहुत नहीं रहती. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इसमें जरूर दिलचस्पी दिखाई थी और पाकिस्तान की इसमें मौजूदगी को देखते हुए इसे जरूरी भी मानते रहे लेकिन बाद के प्रधानमंत्रियों ने इस पर बहुत ध्यान नहीं दिया. मौजूदा वक्त में जब भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी भूमिका बढ़ाने के लिए बेचैन दिख रहा है तब मुमकिन है कि ब्रिटेन की पहल उसे इस गुट में ज्यादा सक्रिय कर दे, लेकिन इसमें समस्याएं भी होंगी. बहुत से देशों के लिए भारत की बढ़ती भूमिका के साथ तालमेल बिठाना मुश्किल होगा, पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण हो सकता है.

Queen Elizabeth II
तस्वीर: Getty Images/S. Wermuth

कॉमनवेल्थ देशों की राजव्यवस्था और प्रशासन में एक तरह की समानता है और ये सारे देश अंग्रेजी भी बोलते हैं. इन वजहों से उनके लिए आपस में व्यापार आसान है. हालांकि इन देशों के खुद यूरोपीय संघ और दूसरे कारोबारी गुटों से संबंध हैं और ब्रेक्जिट के बाद उनके लिए भी समस्या हो सकती है. मॉरीशस, सेंट लूसिया, बोत्स्वाना जैसे कॉमनवेल्थ के बहुत से देश हैं जो ब्रिटेन के जरिए यूरोपीय संघ के साथ कारोबार करते हैं. लंदन उनके लिए गेट की भूमिका निभाता रहा है लेकिन अब यह सब बदल जाएगा. भारतीय कंपनियों पर भी इसका असर होगा. प्रोफेसर पंत ने कहा, "ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर आने के बाद उसके जो बदलाव होंगे उस पर बहुत कुछ निर्भर करेगा. ब्रेक्जिट के कारण दूसरे देशों के रिश्ते भी यूरोपीय संघ से बदलेंगे. ब्रिटेन ने सीधे भारत से समझौते करने की कोशिश की लेकिन भारत और दूसरे देशों ने यही कहा कि वो पहले यूरोपीय संघ से आगे के लिए अपने रिश्तों की रूपरेखा तय करे. ब्रिटेन के लिए भी थोड़ी असमंजस की भी स्थिति है."   

कॉमनवेल्थ की सफलता के लिए उसमें बड़े सुधार की जरूरत है और बगैर उसके दुनिया के स्तर पर इसे बहुत महत्व मिलने के आसार नहीं दिखते. प्रोफेसर पंत कहते हैं, "कॉमनवेल्थ की तरफ दुनिया का ध्यान तब जाएगा जब वो अपने अंदर व्यापक सुधार कर नए एजेंडे के साथ सामने आएगा." विशेषज्ञ मान रहे हैं कि इस वक्त की जरूरतें अलग हैं और उनके हिसाब से ही इस संगठन में बदलाव करने होंगे. भारत और दूसरी उभरती अर्थव्यवस्थाएं इसे नई दिशा दे सकती हैं.