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'घातक बन सकती है सेंसरशिप'

१४ अक्टूबर २०१२

भारत के जाने माने लेखक किरण नागरकर फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में मेहमान के तौर पर आए हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भारत में राजनीतिक हालात के बारे में उन्होंने डॉयचे वेले से खास बातचीत की.

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तस्वीर: DW

डॉयचे वेलेः इस साल जर्मनी में आपको कैसा लग रहा है?

किरण नागरकरः मुझे लगता है कि खास तौर से मेरे लिए यह एक बहुत ही अच्छा देश है. मुझे लगता है कि साहित्य के प्रति जर्मन लोगों का प्रेम बहुत ही हैरान करने वाला है और सोचिए कि लोग एक लेखक से मिलने के लिए पैसे देते हैं. वैसे तो भारत में मुझे लोगों को 1000 रुपए देने पड़ते हैं और इसके बाद भी वे नहीं आते.

डॉयचे वेलेः जर्मनी में आपकी किताबों को कैसे देखा जा रहा है?

किरण नागरकरः वैसे देखा जाए तो मेरी किताब गॉड्स लिटल सोल्जर ने बहुत विवाद पैदा किया और अगले साल फ्राइबर्ग की थियेटर इस पर एक नाटक तैयार कर रही है जो कम से कम तीन से चार घंटे का होगा. तो मैं नहीं जानता कि मैं अपनी कृतज्ञता को कैसे जताऊं. मैं बहुत ही आभारी हूं.

Indischer Autor Kiran Nagarkar
किरण नागरकरतस्वीर: DW

डॉयचे वेलेः अगर भारत की बात करें तो आपको वहां अभिव्यक्ति पर नियंत्रण, वहां के सेंसरशिप के बारे में क्या लगता है? देखा जाए तो हाल ही में असीम त्रिवेदी अपने कार्टून के लिए गिरफ्तार हुए, भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की स्थिति क्या है?

किरण नागरकरः क्या आप यह सवाल वाकई मुझसे पूछना चाहती हैं?

डॉयचे वेलेः हां, बिल्कुल!

किरण नागरकरः ...तो मैं तो शिकायत करूंगा क्योंकि मुझे खुद इस नियंत्रण से प्रताड़ित होना पड़ा है. जब मैंने 1970 की दशक में अपना नाटक बेडटाइम स्टोरीज लिखा था, तो उसे कानूनी तौर पर प्रतिबंधित कर दिया गया. लेकिन मेरे अनुभव से कोई फर्क नहीं पड़ता. क्योंकि मेरे प्रतिबंधित होने के बावजूद उस वक्त स्थिति कहीं ज्यादा अच्छी थी. अब तो हम लोग बिलकुल ही पागल हो गए हैं. मैंने हमेशा माना है कि सेंसरशिप का मतलब है प्रतिस्पर्धा. अगर आपके देश में बहुत सारे धार्मिक गुट हैं तो हर एक गुट अपनी ताकत को दिखाने की कोशिश करेगा और फिर कहेगा कि, अरे, किसी ने मेरा अपमान किया. जैसा की आप जानती हैं, पुलिस अपमानित हो जाती है, डॉक्टर अपमानित हो जाते हैं, क्योंकि किसी ने उनके बारे में बहुत अच्छी बातें नहीं लिखीं. अब तो जैसे उनका दिमाग ही खराब हो गया है. जैसे कार्टून ही देख लीजिए. जब भारत आजाद हुआ था और शंकर वीकली में कार्टून छपे थे तो अंबेडकर और नेहरू ने इन्हें देखा और उन्हें बुरा नहीं लगा. और अब इन तस्वीरों को किताबों से हटाया जा रहा है.

तो क्या हम अपने आप पर हंसना भूल गए हैं? और हंसी ही नहीं, क्या हममें किसी चीज की आलोचना करने की हिम्मत नहीं बची? अगर इसे दूसरे पहलू से देखें, तो देश वास्तव में गंभीर परेशानी में है. और हमें तो वैसे भी सरकार और भ्रष्टाचार की वजह से परेशानी हो रही है. लेकिन अगर दूर की बात देखी जाए तो हमारे लिए सेंसरशिप घातक बन सकती है.

डॉयचे वेलेः घातक क्यों बन सकती है?

किरण नागरकरः क्योंकि फिर अगली बात यह होगी कि अगर आप बोलेंगे कि नेता पैसे चुरा रहे हैं, तो सेंसर आप से कहेगा कि किसी भी नेता की आलोचना नहीं की जा सकती है.

Frankfurter Buchmesse - Besucher in Halle 3
फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेलातस्वीर: DW

डॉयचे वेलेः ...जो ममता बनर्जी ने एक तरह से किया...

किरण नागरकरः बिलकुल! यह घातक ही नहीं, उसके लिए ही नहीं जिसके साथ यह हो रहा है, बल्कि देश के लिए. और भूलना मत, अगर बस साहित्य को देखा जाए तो आप खुद पर नियंत्रण करना शुरू कर देते हैं. और यह एक बड़ा संकट है. अगर आप खुद खुलकर नहीं लिख सकते, और मैं महाराष्ट्र से हूं, तो क्या आपको लगता है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना या शिव सेना मुझे शिवाजी पर लिखने देगी? पहली बात तो यह कि उन्हें शिवाजी के बारे में कुछ नहीं पता. और अगर मैं शिवाजी की तारीफ करते हुए भी लिखूं और उनपर एक जटिल किताब लिखूं, मुझे पता है कि मुझे इसकी सजा मिलेगी. सोनिया गांधी और उनके जो बच्चे हैं, वह इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि उनको एक भगवान के रूप में देखा जाए. यह क्या बात हुई! महात्मा गांधी ने तो कभी ऐसा नहीं सोचा, और वह तो बहुत महान थे, संत भी नहीं थे. तो हमारे देश में कुछ जबरदस्त गड़बड़ी है...भगवान हमें बचाए!

डॉयचे वेलेः एक तरफ तो भारत में राजनीतिक सेंसरशिप है...लेकिन सेक्शुएलिटी को लेकर देश खुल रहा है...तो फिर इन दोनों मुद्दों पर नियंत्रण में इतना फर्क?

किरण नागरकरः जो आप कह रहीं हैं, उसे मैं थोड़ा और बारीकी से देखना चाहूंगा. हां हम सेक्स को लेकर खुल रहे हैं. लेकिन इसी मुद्दे में जिस तरह की चीजों से हमें जूझना पड़ रहा है, उससे हमारा कोई लेना देना नहीं है. चाहे बॉलीवुड हो या कुछ और. हमारे गीत अश्लीलता की तरफ जा रहे हैं, और मैं उन लेखकों में हूं जो खुल कर इस बारे में लिखते हैं और इसे कहानी के साथ मिलकर उभरना चाहिए. और हमारी फिल्मों में सेक्स जैसे दिखाया जाता है जो वास्तविकता में नहीं होता.

इंटरव्यूः मानसी गोपालकृष्णन

संपादनः आभा मोंढे

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