1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

दम तोड़ते बच्चे, विकास करता देश

२८ जून २०१६

बदकिस्मती नहीं कहेंगे, ये साजिश ही तो होगी कि एक ओर विश्व सरकारें अपनी ताकत और अपना वर्चस्व बढ़ाने के लिए टूटी पड़ रही हैं वहीं इन्हीं सरकारों के बाल नागरिकों की एक बड़ी आबादी आसन्न मृत्यु से जूझ रही है.

https://p.dw.com/p/1JEx9
Artikelbild Fiamingo
तस्वीर: Manish Mehta

दुनिया के बच्चों के हाल पर यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट उन भयावह स्थितियों के नतीजों के रूप में उभरे कुछ आंकड़ों को पेश करती है जो सदी दर सदी इस दुनिया पर काबिज हैं. ये स्थितियां हैं बच्चों की अशिक्षा, गरीबी, भुखमरी, कुपोषण और शोषण की जो बद से बदतर हुई जाती हैं.

यूनिसेफ के मुताबिक 2030 तक पांच साल तक के दुनिया के करीब सात करोड़ बच्चे ऐसी बीमारियों से मारे जा सकते हैं जिनका इलाज संभव है. करीब 17 करोड़ बच्चे गरीबी की चपेट में आकर दम तोड़ सकते हैं और 75 करोड़ बच्चियां को शादी के नाम पर एक नरक में होम किया जा सकता है. ये अनुमान हवाई नहीं हैं, वर्षों के अध्ययन, शोध और दशकों से उभरते पैटर्न के आधार पर ये आकलन किए गए हैं. और अब तो इसे विडंबना कहना भी जैसे इस चिंता को हल्का करना है कि इतनी अत्यधिक वैश्विक प्रगति और प्रतिस्पर्धा में आखिर ये बच्चे कैसे छूटते जा रहे हैं और उनके खिलाफ अमानवीयता का दायरा लगातार फैलता क्यों जा रहा है?

Indien Wasserversorgung Probleme in Neu Delhi
तस्वीर: Reuters/A. Mukherjee

यूनिसेफ की इस रिपोर्ट के हवाले से अगर भारत के हाल पर नजर डालें तो यहां के हालात भी कम डराने वाले नहीं. नारों, वादों, नीतियों, कार्यक्रमों और अभियानों के लंबे और कमोबेश अंतहीन सिलसिले के बाद अब ये देश ऐसे मुकाम पर है जहां आए दिन मन की बात होती है लेकिन ये भी एक रस्म की तरह सद्वचनों वाली नैतिक पुस्तक की तरह पेश की जा रही है. समाज और आर्थिकी के सूरतेहाल जबकि बिगड़े ही हैं.

यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत भी उन पांच देशों में शामिल है जहां 2015 में हुई करीब छह करोड़ बाल मौतों में से आधी मौतें हुई हैं. अन्य देश हैं- डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉन्गो, इथियोपिया, नाइजीरिया और पाकिस्तान. लेकिन ये देश अर्थव्यवस्था और ताकत के मामले में भारत के नजदीक नहीं ठहरते हैं. फिर भी बीमारियों से होने वाली मौतों में भारत इनके बराबर आ खड़ा हुआ है. रिपोर्ट भी यही दिखाती है कि भारत जैसे देश वैश्विक आर्थिक वृद्धि की राह पर तो सरपट दौड़ लगा रहे हैं लेकिन बाल मृत्यु दर में कटौती के मामले में पिछड़े हुए हैं. इसका अर्थ क्या है? जाहिर है इसका अर्थ यही है कि विकास की डुगडुगी बजाना अलग बात है, विकास के दृश्यों का निर्माण अलग बात है और विकास का समाज के हर हिस्से की बहुस्तरीय तरक्की के साथ संबंध बना पाना अलग बात है. आज भारत जिस विकास का मुकुट सजाए बैठा है उसके पीछे करोड़ों चीखें दबी हुई हैं. गरीबी, अशिक्षा, भुखमरी, हिंसा और शोषण से घिरे वंचित समाज की चीखें.

एक और आंकड़ा देखिए. भारत में समय से पूर्व प्रसव और प्रसव काल से जुड़ी जटिलताएं बच्चों की मौत की सबसे बड़ी वजह बताई गई हैं. इनकी दर है 39 फीसदी. न्यूमोनिया से करीब 15 फीसदी बच्चे, डायरिया से करीब 10 फीसदी और सेप्सिस से करीब आठ फीसदी बच्चे अकाल मृत्यु के शिकार बनते हैं. यूं भारत में पांच साल से कम बच्चों में मृत्यु दर में गिरावट आई है. 1990 में प्रति हजार जन्मे बच्चों में ये संख्या 126 की थी और अब ये घटकर 48 रह गई है. यूनिसेफ के मुताबिक भारत में 2015 में ढाई करोड़ बच्चे पैदा हुए. दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में भारत की स्थिति अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बाद सबसे बुरी हैं. नेपाल और बांग्लादेश में पांच से कम की आयु में इन तीनों देशों से कम मृत्यु दर है. भारत में यूं तो 94 फीसदी आबादी के पास पीने का साफ पानी है लेकिन टॉयलेट सुविधाएं सिर्फ 40 फीसदी लोगों को ही उपलब्ध है. उचित पोषण, टीकाकरण, संक्रमणों से बचाव, पीने का साफ पानी, ये सब चीजें ऐसी है जो बच्चों को मौत से बचा सकती है. अगर लड़कियों की शिक्षा पर जोर दिया जाए तो दक्षिण एशिया में बच्चों की मृत्यु के मामलों में भारी कमी आ सकती है. जाहिर है शिक्षा भी एक बहुत बड़ा फैक्टर है.

Indien Protest gegen Gewalt an Frauen
तस्वीर: DW/J. Sehgal

बुनियादी चिंता की बात यही है कि साल दर साल इस तरह की रिपोर्टें आती रहती हैं लेकिन न तो राजनैतिक दलों के घोषणापत्रों और न ही सरकारों के एक्शन प्लान में नौनिहालों के स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा का मुद्दा शामिल हो पाता है. ये एक पुरानी समस्या है और आधुनिक परिवेश में इसे नये सिरे से देखे जाने की जरूरत है. इसके लिये सामाजिक क्षेत्र में और अधिक निवेश और एक समन्वित नीति नियोजन और उस पर ईमानदारी से अमल जरूरी है. ‘राजनैतिक स्तर पर इच्छाशक्ति में कमी' की बात अब तोतारटंत हो गयी है. मन की बातें भी कितने दिन सुहाएंगी. लिहाजा करें तो कुछ ऐसा करें कि आमूलचूल बदलाव नजर आने लगे, एकदम एक्शन में आ जाएं, वरना बिना नौनिहालों के उस दूर समय का क्या होगा जिसे भविष्य कहने का चलन है.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी