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बाढ़ से नहीं होगा तालिबान को फायदा

१५ सितम्बर २०१०

पाकिस्तान में आई भयानक बाढ़ के बाद पश्चिमी देशों में सवाल उठ रहे हैं कि क्या इसका फायदा तालिबान को हो सकता है. खासकर तब, जब तालिबान ने बाढ़ पीड़ितों की मदद करने की घोषणा की. लेकिन ऐसा संभव दिखता नहीं है

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तस्वीर: AP

बाढ़ का फायदा तालिबान को मिलने के दावे का हकीकत से कोई लेना देना नहीं है क्योंकि सेना की आंखों के नीचे वे कैसे बाढ़ग्रस्त इलाके में सक्रिय हो सकते थे. लेकिन दूसरी ओर सेना के साथ निकट संबंध रखने वाले दूसरे इस्लामी संगठन बाढ़ पीड़ितों की सक्रिय मदद कर रहे हैं.मध्यपूर्व के हिज्बोल्लाह और हमास की तरह ही वे सामाजिक गतिविधियों और वैचारिक लामबंधी को सफलता के साथ एक दूसरे से जोड़ रहे हैं.

लाहौर के रीगल चौक पर जमात-ए-इस्लामी चंदा जमा करने के लिए कैंप लगाए हुए है. 25 हजार प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं वाली जमात-ए-इस्लामी पाकिस्तान की एक कैडर पार्टी है, लेकिन 45 लाख पंजीकृत समर्थकों के साथ वह बड़े जनाधार वाली पार्टी भी है. उसकी विचारधारा पाकिस्तान से भी पुरानी है. जमात-ए-इस्लामी के उप महासचिव फरीद अहमद पिराचा का कहना है कि पार्टी संसदीय लोकतंत्र की समर्थक है लेकिन अल्लाह को सर्वोच्च सत्ता मानती है. वह कहते हैं, "हम समझते हैं कि पाकिस्तान को इस्लामी पद्धति और ईमानदार टीम के तहत बदला जा सकता है. जमात-ए-इस्लामी के पास ये दोनों चीजें हैं और हम इस्लामी सिद्धांतों के तगड़े समर्थक और प्रचारक हैं. और हमारे पास सभी समस्याओं का हल भी है."

लाहौर में पार्टी का मुख्यालय मंसूराह एक छोटे कस्बे जैसा है. जमात-ए-इस्लामी के कई जन संगठन हैं जिनमें छात्र संगठन, ट्रेड यूनियन और राहत संगठन अल खिदमत फाउंडेशन भी शामिल है. खिदमत का मतलब जरूरतमंदों की सेवा है. फाउंडेशन की ओर से एहसान उल्लाह वक़ास बाढ़पीड़ितों की मदद का समन्वय कर रहे हैं. वह कहते हैं, "मुझे नाज है कि हम पाकिस्तान की सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था हैं. बाढ़ शुरू होने वाली जगह कलाम से करांची तक हर छोटे और बड़े शहर में हमारे संगठन के रजिस्टर्ड वोलंटियर हैं. मैं दावा कर सकता हूं कि सेना के बाद हमारे पास राहत गतिविधियों का सबसे बड़ा नेटवर्क है."

एहसान वक़ास प्रभावित करने वाले आंकड़े देते हैं. अल खिदमत के लगभग 1,000 कैंपों में 24 हजार वोलंटियर बाढ़ पीड़ितों की मदद कर रहे हैं. खिदमत फाउंडेशन के महासचिव 65 वर्षीय एहसान अली सैयद हैं. उन्होंने ज्यूरिख में पढ़ाई की है, इसलिए जर्मन जानते हैं और कारोबारी जिंदगी से रिटायर हो कर अब अपना पूरा वक्त खिदमत फाउंडेशन में लगा रहे हैं. वह बताते हैं, "जमात-ए-इस्लामी के राजनीतिक पक्ष से मेरा कोई लेना देना नहीं है. और ईमानदारी से मैं उन्हें पसंद भी नहीं करता. मैं इसे सही नहीं मानता कि धर्म के साथ राजनीतिक क्षेत्र में आया जाए. व्यक्तिगत रूप से मैं मानता हूं कि सभी बराबर हैं, इसलिए जमात-ए-इस्लामी का यह राजनीतिक पक्ष मुझे पूरी तरह पसंद नहीं है. लेकिन यह काम मैं मजे से करता हूं."

सामान्य समय में भी अल खिदमत फाउंडेशन सामाजिक क्षेत्र में पेशेवर काम करता है. वह पूरे पाकिस्तान में अस्पताल, इमरजेंसी सेवा और स्कूल चलाता है. पाकिस्तान का दूसरा बड़ा इस्लामी राहत संगठन फलाहे इंसानियत फाउंडेशन भी इन क्षेत्रों में सक्रिय है. संयुक्त राष्ट्र द्वारा आतंकवादी करार दिया गया संगठन जमात उद दावा भी मानवीय सहायता के काम में लगा है. जमात उद दावा के राजनीतिक संयोजक हाफिज़ खालिद वलीद कहते हैं, "जमात-ए-इस्लामी और अल खिदमत के विपरीत फलाह और जमात उद दावा की गतिविधियां पारदर्शी नहीं हैं. आतंकवाद के आरोपों के बाद उसने कई बार अपना नाम बदला है और सदस्यों की संख्या भी नहीं बताता. लाहौर में उसका मुख्यालय किले जैसा लगता है. और हाफिज़ खालिद वलीद संगठन के नेता हाफिज़ सईद के दामाद हैं. मुबई आतंकी हमले के मास्टरमाइंड बताकर भारत हाफिज़ सईद के प्रत्यर्पण की मांग कर रहा है."

औपचारिक रूप से जमात उद दावा मुंबई के हमलों में हाथ होने से इनकार करता है, लेकिन अफगानिस्तान में नाटो सैनिकों और कश्मीर में भारतीय सैनिकों के जिहाद का समर्थन करता है. यही नीति जमात-ए-इस्लामी की भी है. दोनों संगठनों को पाकिस्तानी सेना के निकट माना जाता है. अंतर सिर्फ इतना है कि जमात-ए-इस्लामी का लंबा इतिहास है जबकि जमात उद दावा को पाकिस्तानी सेना की रचना माना जाता है.

पाकिस्तानी तालिबान से ये दोनों संगठन इस मायने में अलग हैं कि वे पाकिस्तानी राष्ट्र के खिलाफ लड़ने से मना करते हैं जबकि कभी सेना द्वारा समर्थित तालिबान इस बीच उसके खिलाफ हो गया है.

रिपोर्टः थॉमस बैर्थलाइन, लाहौर

संपादनः ए कुमार

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