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बीमारियों से निपटने में कहां है भारत

शिवप्रसाद जोशी१० फ़रवरी २००९

सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की सूची में छठां गोल है- एचआईवी एड्स जैसी बीमारियों की रोकथाम और इनसे होने वाली मौतों की संख्या में कमी लाना. दुनिया भर में करोड़ो लोग एड्स जैसी जानलेवा बीमारी के शिकार बन रहे हैं

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पोलियो की दवा ज़रूरीतस्वीर: AP Photo

दुनिया में बीमारियों से लड़ने के लिए किए जा रहे उपायों के बीच भारत की क्या स्थिति है जहां एक अरब से ज़्यादा की आबादी है. और क़रीब पैतालीस करोड़ लोग ग़रीब हैं.

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बच्चों में जल्द फैलती है बीमारीतस्वीर: AP

मिलेनियम डेवलेपमेंट गोल्स में जब बीमारियों से छुटकारा पाने की चुनौती को भी शामिल किया गया तो सभी संबद्ध दस्तावेज़ कहते थे कि दुनिया के अधिकांश बच्चे सबसे ज़्यादा बीमारी से मरते हैं. कुपोषण भी इसी से जुड़ा है. और साफ सफाई, उचित सैनीटेशन और पढा़ई लिखाई भी.

ग़रीबी सबसे बड़ी समस्या

फूला और उसका पति अपने चार बच्चों को ये सब मुहैया नहीं करा पाते और ऐसे न जाने कितने लाखो परिवार भारत में रहते हैं जिनके पास सुविधाएं घिसट घिसट कर आ रही हैं. जगदीश को जिसकी पांच बेटियां हैं उनमें से एक को लकवा है. इस बीमारी के लिये डॉक्टर जो दवाई लिख कर देते हैं वे वहां मिलती नहीं और हर बार शहर जा कर दवाई लाना जगदीश के लिये संभव नहीं हो पाता.

पोलियो के लिए तो लगता है तमाम दावों के बीच भारत में अभी लड़ाई जारी है. 2004 में शुरू किए गए राष्ट्रीय पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम के तहत इस साल तक का लक्ष्य रखा गया है. कि वायरस को फैलाव पर काबू कर लिया जाए फिर 2010 में इस बीमारी को समूल नष्ट कर देने का लक्ष्य है. डॉयचे वेले की इस सीरीज़ के लिए रिपोर्टिंग के दौरान घर घर जाकर पोलियो की खूराक पिलाने वाली स्वयंसेवी कार्यकर्ता दिव्या ने बताया कि जो लोग दवाई पिलाने से इनकार करते हैं उनके बारे में हम अपने टीम लीडर को रिपोर्ट करते हैं. टीम लीडर उन्हें समझाने की कोशिश करता है लेकिन अगर वे फिर भी नहीं मानते तो उनकी शिकायत की जाती है और फिर उन पर बाक़ायदा कार्रवाई होती है.

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भारत में अस्पतालों की कमीतस्वीर: picture-alliance/ dpa

तपेदिक से मौत के मामलों में कमी

बात करें अगर टीबी यानी तपेदिक या क्षय रोग की तो इसमें भी मृत्यु के मामले कम हुए हैं. 1990 में प्रति एक लाख की आबादी पर 67 मामले टीबी से मौत के थे. लेकिन 2003 में ये घटकर प्रति एक लाख पर 33 रह गए. राष्ट्रीय तपेदिक नियंत्रण कार्यक्रम के तहत टीबी के मरीज़ों के सफल इलाज़ का अनुपात भी बढ़ा है. 1996 में ठीक होने वाले रोगियों की संख्या 81 फीसदी थी तो 2003 में ये 86 फीसदी हो गयी. भारत के लिए इस रफ्तार से काम करना इसलिए भी लाज़िमी है क्योंकि दुनिया में टीबी के सबसे ज़्यादा मरीज़ भारत में ही हैं.

08.02.2009 DW-TV Projekt Zukunft Aids
सबको नहीं मयस्सर आधुनिक इलाजतस्वीर: DW-TV

उप्र और बिहार की हालत चिंताजनक

पोलियो की बात करें तो सरकार इस दिशा में वैसे तो बहुत काम कर रही है. डॉ यतीश अग्रवाल के मुताबिक़ 2015 तक पोलियो उन्मूलन को लेकर उन्हें काफ़ी उम्मीदे हैं. लेकिन उनका कहना है कि पहली बार में तो लोग दवाई पिला देते हैं लेकिन दूसरी और तीसरी बार कई बार रह जाता है. पोलियो की समस्या ये है कि अगर एक भी डोस रह जाए तो पोलियो फिर से होने का ख़तरा रहता है. भारत सरकार और विश्व स्वास्थ संगठन के नेशनस पोलियो सर्विलेंस प्रोजेक्ट के आंकड़ो की माने तो 2008 के दौरान सिर्फ़ उत्तरप्रदेश औऱ बिहार में 476 मामले सामने आए.

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एड्स है जानलेवा

एड्स अभी भी बड़ी चुनौती

एचआईवी के मामले में अन्य विकासशील देशों की अपेक्षा भारत में गर्भवती महिलाओं में एचआईवी संक्रमण की दर कम है. लेकिन 2002 में अगर प्रति हज़ार महिलाओं पर ये दशमलव सात चार थी तो 2003 में बढ़कर दशमलव आठ छह हो गयी. भारत में एड्स का पहला मामला 1986 में सामने आया था और 2007 का आंकड़ा देखें तो भारत में एचआईवी एड्से के मरीज़ों की संख्या क़रीब 24 लाख हो गयी है. सबसे ज़्यादा प्रभावित है दक्षिण भारतीय राज्य आंध्रप्रदेश, तमिलनाड, कर्नाटक और महाराष्ट्र जहां ऐसे 63 फ़ीसद मरीज़ रहते हैं. मिलेनियम गोल के तहत ये जो बढोतरी का चिंताजनक रूझान है इस पर काबू पाने का लक्ष्य रखा गया है. आखिर एड्स को लेकर क्या जागरूकता अभियान व्यापक नहीं बन पाए.

लेकिन एड्स हो या हैजा तपेदिक पीलिया मलेरिया या हैपेटाइटिस इन सब बीमारियों से सबसे ज़्यादा शिकार बनते हैं बच्चे. इन बीमारियों में सबसे ज़्यादा घातक है मलेरिया.

पूरी दुनिया में मलेरिया से हर तीस सेकंड में पांच साल के कम उम्र के एक बच्चे की मौत हो जाती है. और मलेरिया से 90 फ़ीसद मौतें अफ्रीका महाद्वीप में होती हैं. भारत की बात करें तो यहां उड़ीसा में मलेरिया के सबसे ज़्यादा मामले पाए गए. 2003 के आंकड़ों के अनुसार भारत में मलेरिया से 990 लोगों की जान गई.

मौत और बीमारी के इन आंकड़ों से ज़्यादा ज़रूरी है ये समझना कि भारत जैसे देशों में चिकित्सा सेवा के बुनियादी ढांचे को दुरुस्त होने में भला इतना वक्त क्यों लग रहा है. भूख और कुपोषण और बीमारी से जूझते बच्चों को मां की लोरियां आखिर कब तक चैन की नींद सुला पाएंगीं ताकि वे खिलखिलाते उठ सकें.