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भारत में मिला बिना पैरों वाले उभयचर का नया परिवार

२४ फ़रवरी २०१२

दिल्ली विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने लुप्त हो चुके बिना पैरों वाले उभयचर के पूरे परिवार को खोज निकाला है. इस महत्वपूर्ण अभियान के लिए वैज्ञानिकों की पूरी टीम पिछले पांच वर्ष से प्रयास कर रही थी.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

वैज्ञानिकों ने पूर्वोत्तर भारत के जंगलों की गीली मिट्टी से केसिलियंस की खोज कर विज्ञान जगत को नई दिशा दे दी है. दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सत्यभामा दास बीजू और उनकी टीम ने उभयचर परिवार की खोज के बाद उसे चिकिलिडे नाम दिया है. यह नाम स्थनीय गारो जनजातीय भाषा से लिया गया है.

अब तक विज्ञान की पहुंच से दूर होने की वजह से इसके बारे में बाहर की दुनिया को जानकारी नहीं थी. स्थानीय ग्रामीण इसे सांप समझते हैं लेकिन जमीन पर और पानी दोनों में चलने वाला यह जीव सांप न होकर एक कीड़ा भर है. हालांकि यह स्थानीय है लेकिन इसकी प्रजाति के अफ्रीका से जुड़े होने के संकेत भी मिले हैं.

भारत उभरचरों का बड़ा केंद्र

लंदन की रॉयल सोसायटी पत्रिका ने इस खोज को बुधवार को प्रकाशित किया. इससे इस बात का भी सबूत मिलता है कि भारत उभयचरों की प्रजातियों का बड़ा केंद्र है. वह भी तब जब देश तेज विकास और औद्योगीकरण की नीति पर चल रहा है. यह खोज प्रागैतिहासिक प्रजातियों के निवास, विकास और अन्य कारणों से होने वाले बदलाव के अध्ययन को और रोमांचक बनाती है.

बीजू के अनुसार "जैव विविधता के क्षेत्र में यह खोज मील का पत्थर साबित होगी. हमें उम्मीद है कि इस नए परिवार की खोज कर हम इसके महत्व को दिखा सकेंगे. हम जानते हैं कि हमें क्या चाहिये और हम उन्हें बचाने के लिए क्या कर सकते हैं." इस दिशा में पहले प्रयास के रूप में इसे स्थानीय जनजातीय नाम दिया गया है. यह तीन सबसे पुरानी उभयचर प्रजातियों में से एक है.

प्रोफेसर बीजू कहते हैं, "हमें उम्मीद है कि जब स्थानीय लोगों के नाम और उनकी भाषा के साथ जुड़ी इस खोज के बारे में दुनिया जानेगी तो वो भी इस जीव के महत्व के बारे में जानेंगे और इसे बचाने की कोशिशों में शामिल हो जाएंगे." उन्होंने कहा कि भारत में जैव विविधता में तेजी से कमी हो रही है क्योंकि हम बगैर किसी दया के उनके रहने के ठिकाने नष्ट करते जा रहे हैं.

तेज परिवर्तनों की मार

चिकिलिडे का यह घर लंबे समय से नजरअंदाज किया गया उष्णकटिबंधीय जंगल है. यह क्षेत्र तेजी से हो रहे परिवर्तनों का सामना कर रहा है. आर्थिक वृद्धि, विकास, सड़क निर्माण, औद्योगिक प्रदूषण, कीटनाशकों के बढ़ते इस्तेमाल और जमीन पर कब्जा करने की प्रवृत्ति ने इस तरह की खोज के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं. प्रोफेसर बीजू ने बताया कि उभयचरों के मामले में अब भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है. वैज्ञानिक नई खोज में जुटे हैं. लेकिन हम नहीं जानते कि हम क्या खो रहे हैं. हाल ही के दशकों में उभयचर विशेष रूप से कमजोर हुए हैं. पर्यावरण और पानी की गुणवत्ता से उनके लिए बेहतर वातावरण का निर्माण होता है, लेकिन जब भी पारिस्थिक तंत्र में बदलाव आता है तब उभयचरों के लिए खतरा बढ़ जाता है.

बीजू के अनुसार टीम ने चिकिलिडे परिवार की तीन प्रजातियों की पहचान पहले ही कर ली है. अब उनकी टीम तीन और प्रजातियों की खोज की दिशा में आगे बढ़ रही है. चिकिलिडे की खोज लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम और ब्रसेल्स की फ्री युनिवर्सिटी में भी देखी जा सकती है. विश्व भर में इसकी दस प्रजातियों की खोज हुई है. इनमें से तीन भारत में और शेष दक्षिण पूर्व एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में मिली है. हालांकि अभी इसके वर्गीकरण के लिए लंबी बहस की जरूरत है.

एक तिहाई प्रजातियां खतरे में

ये जमीन के भीतर छुपे होते हैं और हल्का कंपन होने पर भी दौड़ पड़ते हैं. उभयचरों की 186 ज्ञात प्रजातियों में से एक तिहाई के खतरे में होने की बात कही जा रही है. उभयचरों की प्रजाति के मेंढ़क की 6 हजार प्रजाति फिलहाल अस्तित्व में हैं.

पूर्वोत्तर भारत में रहने वाले लोगों के बीच इस दुर्लभ जीव के बारे में तरह तरह की भ्रांतियां हैं. वे इसे जहरीला सांप समझकर मार भी देते हैं. जबकि यह किसानों का सबसे अच्छा दोस्त है. यह भूमि के भीतर पनपने वाले कीड़े मकोड़ों को खा जाता है.

एक वयस्क चिकिलिडे अपने अंडों के साथ तब तक रहता है जब तक अंडों से बच्चे बाहर नहीं आ जाते. इसके लिए वह 50 दिन का भोजन भी इकट्ठा करता है. बीजू के अनुसार "डीएनए परीक्षण से पता चलता है कि चिकिलिडे की प्रजाति के जीव अफ्रीका में भी थे. लाखों वर्ष पहले हुए परिवर्तन के बाद यह प्रजाति अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, अंटार्कटिका, दक्षिण अमेरिका और भारतीय उपमहाद्वीप तक पहुंचे.

रिपोर्ट: एपी/जे.व्यास

संपादन: महेश झा

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